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'''100.''' “परन्तु फिर भी, यदि ''नियमों में'' कुछ अस्पष्टता है तो यह खेल नहीं है” — किन्तु ''क्या'' यह उसे खेल होने से रोकता है? — “संभवतः आप इसे खेल कहेंगे, किन्तु निश्चय ही किसी भी प्रकार यह परिपूर्ण खेल नहीं है।” इसका अर्थ है: इसमें अशुद्धियां हैं, और इस समय मेरी रुचि पूर्ण विवरण में है। — किन्तु मैं कहना चाहता हूँ : हमारी भाषा में आदर्श की भूमिका को हम गलत ढंग से समझते हैं। अतएव हमें भी इसे खेल ही कहना चाहिए, किन्तु आदर्श ने हमें हतप्रभ कर दिया है और इसलिए हम “खेल” शब्द के वास्तविक प्रयोग को स्पष्टतः देखने में असमर्थ हैं। | '''100.''' “परन्तु फिर भी, यदि ''नियमों में'' कुछ अस्पष्टता है तो यह खेल नहीं है” — किन्तु ''क्या'' यह उसे खेल होने से रोकता है? — “संभवतः आप इसे खेल कहेंगे, किन्तु निश्चय ही किसी भी प्रकार यह परिपूर्ण खेल नहीं है।” इसका अर्थ है: इसमें अशुद्धियां हैं, और इस समय मेरी रुचि पूर्ण विवरण में है। — किन्तु मैं कहना चाहता हूँ : हमारी भाषा में आदर्श की भूमिका को हम गलत ढंग से समझते हैं। अतएव हमें भी इसे खेल ही कहना चाहिए, किन्तु आदर्श ने हमें हतप्रभ कर दिया है और इसलिए हम “खेल” शब्द के वास्तविक प्रयोग को स्पष्टतः देखने में असमर्थ हैं। | ||
'''101''' हम कहना चाहते हैं कि तर्कशास्त्र में तो कोई अस्पष्टता हो ही नहीं सकती। अब हम इस विचार में मग्न रहते हैं कि आदर्श तो ‘''अनिवार्यतः''’ वास्तविकता में ही मिलना चाहिए। इस बीच, हमें यह नहीं पता चलता कि यह वहाँ ''कैसे'' पाया जाता है, न ही हम इस “अनिवार्यतः” के स्वभाव को समझते हैं। हम सोचते हैं कि इस अनिवार्यतः को वास्तविकता में होना चाहिए; क्योंकि हमें लगता है कि हम उसे पहले से ही वहाँ देख रहे हैं। | |||
'''102''' प्रतिज्ञप्तियों की तार्किक संरचना के सुनिश्चित एवं स्पष्ट नियम हमें पृष्ठभूमि में विवेक के माध्यम द्वारा छुपाये हुए से प्रतीत होते हैं। मैं पहले से ही उन्हें देख सकता हूँ (यद्यपि किसी माध्यम के द्वारा) : क्योंकि मैं प्रतिज्ञप्ति-संकेत को समझता हूँ मैं उसका प्रयोग कुछ कहने के लिए करता हूँ। | |||
'''103''' आदर्श के बारे में हम सोचते हैं कि वह दृढ़ होता है। आप उससे बाहर नहीं जा सकते आपको सदैव वहीं लौटना होगा। बाहर तो है ही नहीं; बाहर तो आप सांस भी नहीं ले सकते। — यह विचार कहाँ से आता है? यह तो हमारी आँख पर लगे चश्मे जैसा है और सभी विषयों का निरीक्षण हम उसी माध्यम से करते हैं उसे उतारने की तो हम कभी सोचते ही नहीं। | |||
'''104''' किसी पदार्थ को निरूपित करने वाली पद्धति को ही हम विधेय कहते हैं। तुलना की सम्भावना से प्रभावित होकर हम सोचते हैं कि हम अत्यन्त व्यापकता की स्थिति को देख रहे हैं। | |||
'''105''' जब हम यह समझते हैं कि हमें अपनी वास्तविक भाषा में उस व्यवस्था को, आदर्श को, अनिवार्यतः ढूँढना ही चाहिए तो सामान्यतः हम “प्रतिज्ञप्तियां”, “शब्द”, “संकेत” कहे जाने वाले विषयों से असन्तुष्ट हो जाते हैं। | |||
ऐसा माना जाता है कि तर्कशास्त्र द्वारा व्यवहृत प्रतिज्ञप्ति एवं शब्द शुद्ध एवं स्पष्ट होते हैं। और हम ''वास्तविक'' संकेत के स्वभाव के बारे में ही मगज़पच्ची करते रहते हैं। — सम्भवतः यह संकेत का ''विचार'' है? अथवा इस क्षण होने वाला यह विचार है? | ऐसा माना जाता है कि तर्कशास्त्र द्वारा व्यवहृत प्रतिज्ञप्ति एवं शब्द शुद्ध एवं स्पष्ट होते हैं। और हम ''वास्तविक'' संकेत के स्वभाव के बारे में ही मगज़पच्ची करते रहते हैं। — सम्भवतः यह संकेत का ''विचार'' है? अथवा इस क्षण होने वाला यह विचार है? | ||
'''106''' यहाँ पर ऐसा लगता है मानो सिर उठाए रखना कठिन है, — इसे समझने के लिए हमें अपने दैनिक विषयों पर ही टिके रहना चाहिए, और न तो पथभ्रष्ट होना चाहिए और न ही यह कल्पना करनी चाहिए कि हमें ऐसे सूक्ष्म प्रभेदों का विवरण देना होगा, जिनका विवरण अन्ततोगत्वा अपने पास उपलब्ध साधनों से देने में हम नितान्त असमर्थ हैं। ऐसा प्रतीत होता है मानो हमें अपनी अंगुलियों से मकड़ी के टूटे हुए जाल की मरम्मत करनी हो। | |||
'''107''' जितनी अधिक सूक्ष्मता से हम अपनी वास्तविक भाषा का परीक्षण करते हैं उतना ही उसमें, और हमारी आवश्यकता में, विरोध स्पष्ट होता जाता है। (क्योंकि तर्कशास्त्र की स्फुटिक शुद्धता बेशक अन्वेषण ''का फल'' तो नहीं थी : यह तो एक आवश्यकता थी।) यह विरोध असहनीय हो जाता है; आवश्यकता के तो अब निरर्थक हो जाने का अंदेशा है। — हम तो अब ऐसी फिसलनी बर्फ पर पहुँच चुके हैं जहाँ घर्षण ही नहीं है, और इसलिए किसी विशिष्ट अर्थ में यह एक आदर्श परिस्थिति है, किन्तु इसी कारण हम चलने में असमर्थ भी हैं। हम चलना चाहते हैं: इसलिए हमें ''घर्षण'' की आवश्यकता है। अब असमतल भूमि पर लौटिये। | |||
{ | {'''108''' हम देखते हैं कि जिन्हें हम “वाक्य” एवं “भाषा” कहते हैं उन में वैसी आकारिक एकता नहीं है जिसकी मैंने कल्पना की थी, अपितु वह तो एक दूसरे से | ||
{{PU box|द ''कैमिकल हिस्ट्री ऑफ ए कैंडल'' में फैराडे ने लिखा : “जल एक ऐसी वस्तु है जो कभी भी परिवर्तित नहीं होती।”}} | {{PU box|द ''कैमिकल हिस्ट्री ऑफ ए कैंडल'' में फैराडे ने लिखा : “जल एक ऐसी वस्तु है जो कभी भी परिवर्तित नहीं होती।”}} | ||
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“वास्तव में शब्द क्या है?” यह प्रश्न, “शतरंज में मोहरा क्या है?” इस प्रश्न के समान है। | “वास्तव में शब्द क्या है?” यह प्रश्न, “शतरंज में मोहरा क्या है?” इस प्रश्न के समान है। | ||
'''109''' यह कहना सही था कि हमारी समीक्षाएं तो वैज्ञानिक हो ही नहीं सकती थीं। ‘हमारे पूर्वकल्पित विचारों के विपरीत अमुक-अमुक सोचना सम्भव है’ इसके परीक्षण में — चाहे उसका जो कुछ भी अर्थ हो, हमारी कोई भी रुचि नहीं थी। (गैस जैसा माध्यम होने जैसी विवेक की धारणा) और मनमर्जी सिद्धान्त प्रस्तुत न करें। हमारी समीक्षाओं में कुछ भी परिकल्पित नहीं होना चाहिए। हमें ''व्याख्या'' को सम्पूर्णतः हटा देना चाहिए और मात्र विवरण को उसका स्थान दे देना चाहिए। और यह विवरण अपना अर्थ अतएव अपना उद्देश्य, दार्शनिक समस्याओं से प्राप्त करता है। बेशक ये आनुभविक समस्याएं नहीं हैं; वस्तुतः उनका समाधान हमारी भाषा की कार्यपद्धति का निरीक्षण करने से हो जाता है, और वह भी इस प्रकार से कि हम इन कार्यपद्धतियों को स्वीकार कर लें : उनको गलत अर्थ में लेने की उत्कट इच्छा ''होते हुए भी''। समस्याओं का समाधान नई सूचना देने से नहीं होता, अपितु समाधान सदैव पूर्वज्ञात सूचनाओं को व्यवस्थित करने से होता है। दर्शन तो भाषा द्वारा हमारी बुद्धि के वशीकरण के विरुद्ध संघर्ष है। | |||
'''110''' “भाषा (अथवा विचार) तो कुछ अपूर्व है” — यह तो एक अंधविश्वास (न कि भ्रान्ति) सिद्ध होता है, जो स्वयं ही व्याकरण सम्बन्धी भ्रान्तियों की उपज है। और यह अपूर्वता अब, इन भ्रान्तियों, इन समस्याओं में छुप जाती है। | |||
'''111''' हमारी भाषा के आकारों की गलत व्याख्या से उत्पन्न समस्याओं में ''गहनता'' होता है। वे उग्र व्यग्रताएं होती हैं; भाषा-आकारों की भांति हमारे भीतर उनकी जड़ें बहुत गहरी होती हैं। और वे हमारी भाषा के समान ही महत्त्वपूर्ण होते हैं। — आइए हम अपने आप से पूछें : हमें व्याकरण-सम्बन्धी चुटकुला ''गहन'' क्यों प्रतीत होता है? (और इसे ही दर्शन की गहनता कहा जाता है।) | |||
'''112''' हमारे भाषा-आकारों में आत्मसात् हुई उपमाएं मिथ्या आभास उत्पन्न करती हैं, और इससे हम व्याकुल हो जाते हैं। “किन्तु यह ''ऐसा'' तो नहीं है!” — हम कहते हैं “तथापि इसे ''ऐसा'' ही होना चाहिए!” | |||
'''113''' “किन्तु यह ''ऐसा'' है” — मैं अपने आप बार-बार कहता हूँ। मुझे प्रतीत होता है मानो यदि मैं इस तथ्य पर गौर कर पाता, इस पर ध्यान केन्द्रित कर पाता, तो मैं निश्चय ही इसके सार को ग्रहण कर पाता। | |||
'''114''' (''ट्रैक्टेटस लॉजिको फिलोसॅफिक्स'', 4.5) “प्रतिज्ञप्ति का साधारण आकार है: पदार्थ ऐसे होते हैं।” — इस प्रकार की प्रतिज्ञप्ति को कोई अनेक बार दोहराता है। वह ऐसा सोचता है कि पदार्थ के स्वभाव की रूपरेखा को वह बार-बार बना रहा है, किन्तु वस्तुतः वह उस आकार को ही रेखांकित कर रहा होता है जिसके माध्यम से हम उसे देखते हैं। | |||
'''115''' ''चित्र'' ने हमें बाँध लिया है। और हम उससे बाहर नहीं निकल सकते क्योंकि वह हमारी भाषा में ही था और हमें ऐसा लगता है कि भाषा इसे निरपवाद रूप से दोहराती रहती है। | |||
'''116''' जब दार्शनिक — “ज्ञान”, “सत्ता”, “वस्तु”, “मैं”, “प्रतिज्ञप्ति”, “नाम” जैसे शब्दों का प्रयोग करते हैं — और पदार्थ के ''सार'' को ढूँढ़ने का प्रयत्न करते हैं तो हमें प्रश्न करना चाहिए : इस शब्द के मौलिक निवास-स्थान, भाषा-खेल में क्या कभी इसे इस ढंग से प्रयोग किया जाता है? — | |||
इससे ''हम'' शब्दों को उनके परा-भौतिक प्रयोग से वापिस दैनन्दिन प्रयोग में लौटा लाते हैं। | इससे ''हम'' शब्दों को उनके परा-भौतिक प्रयोग से वापिस दैनन्दिन प्रयोग में लौटा लाते हैं। | ||
'''117''' आप मुझे कहते हैं: “आप इस अभिव्यक्ति को समझते हैं, क्या आप नहीं समझते? ठीक है, तब तो — मैं इसका उसी अर्थ में प्रयोग कर रहा हूँ जिससे आप परिचित हैं।” — मानो अर्थ शब्द से संलग्न ऐसा वातावरण हो जो उसके हर प्रकार के प्रयोग का सहगामी हो। | |||
उदाहरणार्थ, यदि कोई कहे कि “यह यहाँ है” (और इस वाक्य को कहने के साथ-साथ वह अपने समक्ष रखी किसी वस्तु को इंगित करे) का अर्थ वह समझता है तो उसे स्वयं से पूछना चाहिए कि वास्तव में इस वाक्य का प्रयोग किन विशिष्ट परिस्थितियों में किया जाता है। उन्हीं परिस्थितियों में उसका अर्थ होता है। | उदाहरणार्थ, यदि कोई कहे कि “यह यहाँ है” (और इस वाक्य को कहने के साथ-साथ वह अपने समक्ष रखी किसी वस्तु को इंगित करे) का अर्थ वह समझता है तो उसे स्वयं से पूछना चाहिए कि वास्तव में इस वाक्य का प्रयोग किन विशिष्ट परिस्थितियों में किया जाता है। उन्हीं परिस्थितियों में उसका अर्थ होता है। | ||
'''118''' हमारा अन्वेषण महत्त्वपूर्ण क्योंकर होता है, क्योंकि यह तो सभी रुचिकर विषयों : अतः उन सब का जो महान एवं महत्त्वपूर्ण हैं, विनाश ही करना प्रतीत होता है? (मानो सभी भवनों का विनाश, और बचे रहते हैं केवल टूटे पत्थर और उनका मलबा।) हम जिसका विनाश कर रहे हैं वह ताश के पत्तों से बने घरों के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है, और हम भाषा के उसी आधार को खत्म कर रहे हैं जिस पर वे बने हैं। | |||
'''119''' किसी विशुद्ध ''बकवास'' को प्रदर्शित करना, और बोध के द्वारा भाषा की सीमाओं से सिर फोड़ने से आई चोटों को दिखाना दर्शन के परिणाम हैं। इन चोटों से हमें खोज की महत्ता पता चलती है। | |||
'''120''' जब मैं भाषा (शब्दों, वाक्यों इत्यादि) के बारे में बात करता हूँ तो मुझे दैनन्दिन भाषा का उल्लेख करना चाहिए। क्या यह भाषा हमारी अभिव्यक्ति के लिए कोई बेहद घटिया एवं दुनियावी साधन है? ''तो किसी अन्य भाषा का निर्माण कैसे होगा?'' — यह विचित्र ही है कि उपलब्ध भाषा द्वारा हम कुछ भी कर पाते हैं! | |||
व्याख्याओं के लिए मुझे पूर्णत : पूर्व-विकसित (न कि किसी प्रकार की प्रारम्भिक, कामचलाऊ) भाषा का प्रयोग करना पड़ता है; इसी से पता चलता है कि मैं तो भाषा के बारे में केवल बाह्य तथ्यों को ही प्रस्तुत कर सकता हूँ। | व्याख्याओं के लिए मुझे पूर्णत : पूर्व-विकसित (न कि किसी प्रकार की प्रारम्भिक, कामचलाऊ) भाषा का प्रयोग करना पड़ता है; इसी से पता चलता है कि मैं तो भाषा के बारे में केवल बाह्य तथ्यों को ही प्रस्तुत कर सकता हूँ। | ||
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आप कहते हैं: बात शब्द की नहीं अपितु उसके अर्थ की है, और अर्थ को आप शब्द के समान ही समझते हैं; यद्यपि उससे भिन्न भी। यह शब्द, और उसका वह अर्थ। धन, और इस धन से खरीदी जा सकने वाली गाय। (किन्तु तुलना कीजिए : धन, और उसके प्रयोग की।) | आप कहते हैं: बात शब्द की नहीं अपितु उसके अर्थ की है, और अर्थ को आप शब्द के समान ही समझते हैं; यद्यपि उससे भिन्न भी। यह शब्द, और उसका वह अर्थ। धन, और इस धन से खरीदी जा सकने वाली गाय। (किन्तु तुलना कीजिए : धन, और उसके प्रयोग की।) | ||
'''121''' कोई समझ सकता है: यदि दर्शन “दर्शन” शब्द के प्रयोग का उल्लेख करता है तो दर्शन का कोई अवर-क्रम (सैकण्ड-ऑर्डर) भी होना चाहिए। किन्तु ऐसा नहीं है; वस्तुत : यह वर्तनी-विचार के समान है जो यद्यपि अन्य शब्दों के साथ-साथ “वर्तनी-विचार” शब्द की भी व्याख्या देता है, तो भी उसका अवर-क्रम नहीं होता। | |||
'''122''' किसी विषय को समझने की हमारी असफलता का मुख्य कारण तो यह है कि हमें अपने-शब्द प्रयोग का कोई ''स्पष्ट-विचार'' नहीं होता। — हमारे व्याकरण में इस प्रकार की स्पष्ट अभिव्यक्ति की कमी है। सुस्पष्ट निरूपण ‘सम्बन्धों को देखने’ वाली समझ ही उत्पन्न करता है। अतः ''मध्यवर्ती स्थितियों'' को पाने एवं खोजने का महत्त्व होता है। | |||
सुस्पष्ट निरूपण का प्रत्यय हमारे लिए मौलिक रूप से महत्त्वपूर्ण है। यह हमारे द्वारा दिए गए विवरण के आकार को, पदार्थों को, समझने के हमारे ढंग को, निर्धारित करता है। (क्या यह ‘''वेल्टनश्युआंग''’ है?) | सुस्पष्ट निरूपण का प्रत्यय हमारे लिए मौलिक रूप से महत्त्वपूर्ण है। यह हमारे द्वारा दिए गए विवरण के आकार को, पदार्थों को, समझने के हमारे ढंग को, निर्धारित करता है। (क्या यह ‘''वेल्टनश्युआंग''’ है?) | ||
'''123''' दार्शनिक समस्या का रूप यह है: “मुझे नहीं मालूम कि मेरा मार्ग कौन सा है?” | |||
'''124''' भाषा के वास्तविक प्रयोग में दर्शन किसी प्रकार का हस्तक्षेप न करे; अन्ततः तो वह उसका विवरण ही दे सकता है। | |||
क्योंकि वह उसे कोई आधार भी नहीं दे सकता। वह तो प्रत्येक विषय को जस-का-तस छोड़ देता है। | क्योंकि वह उसे कोई आधार भी नहीं दे सकता। वह तो प्रत्येक विषय को जस-का-तस छोड़ देता है। | ||
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वह गणित को भी जस-का-तस छोड़ देता है, और कोई भी गणितीय खोज उसे आगे नहीं बढ़ा सकती। हमारे लिए “गणितीय तर्कशास्त्र की प्रमुख समस्या” गणित की अन्य किसी समस्या के समान ही होती है। | वह गणित को भी जस-का-तस छोड़ देता है, और कोई भी गणितीय खोज उसे आगे नहीं बढ़ा सकती। हमारे लिए “गणितीय तर्कशास्त्र की प्रमुख समस्या” गणित की अन्य किसी समस्या के समान ही होती है। | ||
'''125''' दर्शन का कार्य गणितीय अथवा तर्क-गणितीय खोजों द्वारा व्याघातों का समाधान देना नहीं है, अपितु इसका कार्य हमें बेचैन करने वाली गणित की अवस्था, व्याघात-समाधान से ''पूर्व-अवस्था'', को स्पष्ट कर सकना है। (पर इसका अर्थ कठिनाइयों से बचना नहीं है।) | |||
मूल बात यह है कि इस खेल के नियम, उसकी पद्धतियां बनाते हैं और फिर जब हम उन नियमों का पालन करते हैं तब वह नहीं होता जो हमने सोचा था। इसलिए मानो हम स्वयं अपने नियमों में ही उलझ गये हैं। | मूल बात यह है कि इस खेल के नियम, उसकी पद्धतियां बनाते हैं और फिर जब हम उन नियमों का पालन करते हैं तब वह नहीं होता जो हमने सोचा था। इसलिए मानो हम स्वयं अपने नियमों में ही उलझ गये हैं। | ||
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व्याघात की शिष्ट स्थिति अथवा शिष्ट जनों में उसकी स्थिति : यही तो दार्शनिक समस्या है। | व्याघात की शिष्ट स्थिति अथवा शिष्ट जनों में उसकी स्थिति : यही तो दार्शनिक समस्या है। | ||
'''126''' दर्शन तो हमारे सामने सब कुछ रखता भर है, वह न तो कोई व्याख्या देता है और न ही कोई निर्गमन करता है। — क्योंकि सब कुछ हमारी आँखों के सामने खुला होता है, व्याख्या के लिए कुछ बचता ही नहीं। क्योंकि छुपे हुए विषय में हमारी कोई रुचि नहीं होती। | |||
सभी नई खोजों एवं अन्वेषणों से ''पूर्व'' सम्भव विषयों को भी “दर्शन” नाम दिया जा सकता है। | सभी नई खोजों एवं अन्वेषणों से ''पूर्व'' सम्भव विषयों को भी “दर्शन” नाम दिया जा सकता है। | ||
'''127''' दार्शनिक का कार्य तो किसी विशेष प्रयोजन के लिए अनुस्मारक एकत्र करना होता है। | |||
'''128''' यदि कोई दर्शन में स्थापना प्रस्तुत करे तो उस पर चर्चा करना कभी भी सम्भव नहीं होगा, क्योंकि सभी उससे सहमत होंगे। | |||
'''129''' हमारे लिए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विषयों के पहलू अपनी सरलता एवं अंतरंगता के कारण हमसे छुपे रहते हैं। (हम किसी वस्तु पर ध्यान देने में असमर्थ होते हैं — क्योंकि वह सदैव ही हमारी आँखों के सामने रहती है।) मनुष्य को अपनी जाँच का वास्तविक आधार तो सूझता ही नहीं जब तक कि कभी ''इस'' तथ्य ने उसे आकर्षित न किया हो। — और इसका अर्थ है: हमें एक बार समझ आ जाने पर जो विषय सर्वाधिक आकर्षक एवं सर्वाधिक प्रभावकारी है उससे आकृष्ट होने में साधारणतः हम असफल रहते हैं। | |||
'''130''' हमारे स्पष्ट एवं सरल भाषा-खेल, भाषा के भावी व्यवस्थापन के प्रारम्भिक अध्ययन नहीं हैं — यानी ये घर्षण एवं वायु-प्रतिरोध की उपेक्षा करके उस (भावी अध्ययन) के सबसे निकट हैं। भाषा-खेलों का गठन तो वस्तुतः ''तुलना के उन विषयों'' के समान है जिनका कार्य न केवल समानताओं द्वारा, अपितु असमानताओं द्वारा भी हमारी भाषा के तथ्यों पर प्रकाश डालना है। | |||
'''131''' क्योंकि हम अपने अभिकथनों में असंगति अथवा शून्यता के आदर्श को जस-का-तस, उपमान के समान, यानी मापदण्ड के समान, प्रस्तुत करके बच सकते हैं; न कि उस पूर्वकल्पित विचार को प्रस्तुत करके जिसके अनुरूप वास्तविकता को ''अनिवार्यतः'' होना चाहिए। (यह वही रूढ़िवाद है जिसमें हम तत्त्व-विचार करते समय सरलता से फँस सकते हैं।) | |||
'''132''' अपने भाषा-प्रयोग में हम व्यवस्था, किसी विशेष प्रयोजन हेतु व्यवस्था; अनेक सम्भव व्यवस्थाओं में से एक, न कि ''सर्वश्रेष्ठ'' व्यवस्था, स्थापित करना चाहते हैं। इसलिए हम उन भेदों को निरंतर प्रमुखता देंगे जिनकी भाषा के हमारे साधारण आकार सुगमता से उपेक्षा करवा देते हैं। इससे ऐसा प्रतीत हो सकता है मानो हमारा कार्य भाषा सुधारना हो। | |||
किन्हीं विशिष्ट प्रयोजनों के लिए व्यवहार में गलतफहमियों से बचने के लिए अपनी शब्दावली में सुधार जैसा सुधार पूर्णतः सम्भव है। किन्तु ये वे स्थितियां नहीं हैं जिनसे हमें निपटना पड़ता है। उलझाने वाली भ्रान्तियां तभी उत्पन्न होती हैं जब भाषा एक निष्क्रिय इंजिन के समान होती है, न कि तब जब वह कार्यरत होती है। | किन्हीं विशिष्ट प्रयोजनों के लिए व्यवहार में गलतफहमियों से बचने के लिए अपनी शब्दावली में सुधार जैसा सुधार पूर्णतः सम्भव है। किन्तु ये वे स्थितियां नहीं हैं जिनसे हमें निपटना पड़ता है। उलझाने वाली भ्रान्तियां तभी उत्पन्न होती हैं जब भाषा एक निष्क्रिय इंजिन के समान होती है, न कि तब जब वह कार्यरत होती है। | ||
'''133''' हमारा उद्देश्य शब्द-प्रयोग की अपनी नियम-प्रणाली को बिल्कुल नये ढंग से संशोधित करना अथवा पूर्ण करना नहीं है। | |||
क्योंकि जो स्पष्टता हमारा ध्येय है वह वास्तव में तो ''सम्पूर्ण'' स्पष्टता है। किन्तु इसका अर्थ तो केवल यह है कि दार्शनिक समस्याओं को ''पूर्णतः'' लुप्त हो जाना चाहिए। | क्योंकि जो स्पष्टता हमारा ध्येय है वह वास्तव में तो ''सम्पूर्ण'' स्पष्टता है। किन्तु इसका अर्थ तो केवल यह है कि दार्शनिक समस्याओं को ''पूर्णतः'' लुप्त हो जाना चाहिए। | ||
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यद्यपि कोई ''एक'' दार्शनिक पद्धति नहीं होती, तथापि विभिन्न चिकित्सा-पद्धतियों के समान दार्शनिक पद्धतियां तो होती हैं। | यद्यपि कोई ''एक'' दार्शनिक पद्धति नहीं होती, तथापि विभिन्न चिकित्सा-पद्धतियों के समान दार्शनिक पद्धतियां तो होती हैं। | ||
'''134''' आइए हम इस प्रतिज्ञप्ति का परीक्षण करें : “पदार्थ ऐसे होते हैं।” — मैं कैसे कह सकता हूँ कि यह प्रतिज्ञप्तियों का सामान्य आकार है? मुख्य रूप से यह ''स्वयं'' ही एक प्रतिज्ञप्ति, एक हिन्दी वाक्य है, क्योंकि इसमें एक विषय एवं एक विधेय है। किन्तु इस वाक्य का प्रयोग हमारे दैनिक जीवन में कैसे किया जाता है? क्योंकि वह मुझे वहीं से मिला है, कहीं और से नहीं। | |||
उदाहरणार्थ, हम कह सकते हैं: “उसने मुझे अपनी स्थिति बतलाई, अपनी कठिनाई बतलाई और यह कहा कि इसीलिए उसे पेशगी की जरूरत थी।” अब तो यह कहा जा सकता है कि वाक्य किसी अन्य कथन का पर्याय है। इसका प्रतिज्ञप्ति सम्बन्धी आकृति-कल्प के समान प्रयोग करने का कारण केवल यह है कि इसकी संरचना हिन्दी वाक्य वाली है। विकल्प में यह कहना सम्भव है कि “अमुक-अमुक स्थिति है”, “यह स्थिति है”, और तथावत्। यहाँ पर प्रतीकात्मक तर्कशास्त्र में होने वाले प्रयोग के समान मात्र एक अक्षर, एक चर, का प्रयोग भी सम्भव है। किन्तु कोई भी “प” अक्षर को प्रतिज्ञप्तियों का सामान्य आकार नहीं कहेगा। यानी “पदार्थ ऐसे होते हैं” उसकी इस स्थिति का कारण हिन्दी का वाक्य होना है। पर यद्यपि यह एक प्रतिज्ञप्ति है, तो भी यह वाक्य प्रतिज्ञप्ति सम्बन्धी चर के समान प्रयुक्त होता है। यह कहना, कि यह प्रतिज्ञप्ति वास्तविकता के अनुरूप (अथवा उसके अनुरूप नहीं है, तो स्पष्टतः कोरी बकवास होगी। अतः इससे पता चलता है कि ''प्रतिज्ञप्ति के समान प्रतीत होना'' तो प्रतिज्ञप्ति के हमारे प्रत्यय का ''एक'' लक्षण है। | उदाहरणार्थ, हम कह सकते हैं: “उसने मुझे अपनी स्थिति बतलाई, अपनी कठिनाई बतलाई और यह कहा कि इसीलिए उसे पेशगी की जरूरत थी।” अब तो यह कहा जा सकता है कि वाक्य किसी अन्य कथन का पर्याय है। इसका प्रतिज्ञप्ति सम्बन्धी आकृति-कल्प के समान प्रयोग करने का कारण केवल यह है कि इसकी संरचना हिन्दी वाक्य वाली है। विकल्प में यह कहना सम्भव है कि “अमुक-अमुक स्थिति है”, “यह स्थिति है”, और तथावत्। यहाँ पर प्रतीकात्मक तर्कशास्त्र में होने वाले प्रयोग के समान मात्र एक अक्षर, एक चर, का प्रयोग भी सम्भव है। किन्तु कोई भी “प” अक्षर को प्रतिज्ञप्तियों का सामान्य आकार नहीं कहेगा। यानी “पदार्थ ऐसे होते हैं” उसकी इस स्थिति का कारण हिन्दी का वाक्य होना है। पर यद्यपि यह एक प्रतिज्ञप्ति है, तो भी यह वाक्य प्रतिज्ञप्ति सम्बन्धी चर के समान प्रयुक्त होता है। यह कहना, कि यह प्रतिज्ञप्ति वास्तविकता के अनुरूप (अथवा उसके अनुरूप नहीं है, तो स्पष्टतः कोरी बकवास होगी। अतः इससे पता चलता है कि ''प्रतिज्ञप्ति के समान प्रतीत होना'' तो प्रतिज्ञप्ति के हमारे प्रत्यय का ''एक'' लक्षण है। | ||
'''135''' किन्तु हमारे पास प्रतिज्ञप्ति क्या होती है, “प्रतिज्ञप्ति” से हम क्या समझते हैं — इनका क्या कोई प्रत्यय नहीं होता? — हाँ, उसी तरह जैसे कि हमारे पास “खेल” से हमारा क्या अर्थ है इस का प्रत्यय होता है। प्रतिज्ञप्ति क्या होती है यह पूछे जाने पर — चाहे इसका उत्तर हमें किसी अन्य व्यक्ति को अथवा अपने आप को देना हो — हम उदाहरण देंगे, और इनमें आगमनात्मक विधि से परिभाषित की जाने वाली प्रतिज्ञप्तियों की श्रृंखला भी होगी। इस प्रकार के ढंग से ही हम ‘प्रतिज्ञप्ति’ जैसे प्रत्यय को जानते हैं। (प्रतिज्ञप्ति के प्रत्यय की, अंक के प्रत्यय से तुलना कीजिए।) | |||
'''136''' अंतत : “पदार्थ ऐसे होते हैं” इसको प्रतिज्ञप्तियों का सामान्य आकार कहना | |||
यह परिभाषा देने के समान है कि जो भी सत्य अथवा असत्य हो सकती है वह प्रतिज्ञप्ति है। क्योंकि “पदार्थ ऐसे होते हैं” के बदले मैं कह सकता था “यह सत्य है”। (या फिर “यह असत्य है”।) किन्तु हमारे लिए : | यह परिभाषा देने के समान है कि जो भी सत्य अथवा असत्य हो सकती है वह प्रतिज्ञप्ति है। क्योंकि “पदार्थ ऐसे होते हैं” के बदले मैं कह सकता था “यह सत्य है”। (या फिर “यह असत्य है”।) किन्तु हमारे लिए : |