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{{ParPU|96}} यहाँ उल्लिखित विशिष्ट भ्रांति के साथ विभिन्न स्थितियों में पाई जाने वाली अन्य भ्रान्तियां भी जुड़ जाती हैं। अब हमें विचार और भाषा, संसार के सहसंबद्ध अपूर्व चित्र प्रतीत होते हैं। ये प्रत्यय प्रतिज्ञप्ति, भाषा, विचार, संसार, एक दूसरे के पीछे पंक्तिबद्ध खड़े हैं, इनमें से हर एक दूसरे का समानार्थी है। (किन्तु अब इन शब्दों का किसके लिए प्रयोग करें? जिस भाषा-खेल में इनका प्रयोग करना है वह तो यहाँ है ही नहीं।) | {{ParPU|96}} यहाँ उल्लिखित विशिष्ट भ्रांति के साथ विभिन्न स्थितियों में पाई जाने वाली अन्य भ्रान्तियां भी जुड़ जाती हैं। अब हमें विचार और भाषा, संसार के सहसंबद्ध अपूर्व चित्र प्रतीत होते हैं। ये प्रत्यय प्रतिज्ञप्ति, भाषा, विचार, संसार, एक दूसरे के पीछे पंक्तिबद्ध खड़े हैं, इनमें से हर एक दूसरे का समानार्थी है। (किन्तु अब इन शब्दों का किसके लिए प्रयोग करें? जिस भाषा-खेल में इनका प्रयोग करना है वह तो यहाँ है ही नहीं।) | ||
{{ParPU|97}} विचार के चारों ओर एक प्रभामण्डल होता है। — इसका सार, अतः तर्क, एक व्यवस्था, वस्तुतः संसार की प्रागनुभव व्यवस्था, प्रस्तुत करता है: अतः ''संभावनाओं'' की व्यवस्था जो संसार और विचार दोनों में ही साझी होंगी। किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि यह व्यवस्था ''पूर्णतः सरल'' होनी चाहिए। यह समस्त अनुभव से पूर्ववर्ती है, इसे समस्त अनुभव में आद्योपांत रहना चाहिए; इस पर किसी भी आनुभविक भटकाव अथवा अनिश्चितता का प्रभाव नहीं पड़ने देना चाहिए — बल्कि इसे तो सर्वाधिक शुद्ध स्फटिक होना चाहिए। किन्तु यह स्फटिक अमूर्त तो प्रतीत नहीं होता; बल्कि यह तो मूर्त, वास्तव में सर्वाधिक मूर्त, प्रतीत होता है मानो सत्तावान पदार्थों में यह सर्वाधिक कठोर पदार्थ हो (''ट्रेकटेटस लॉजिको- | {{ParPU|97}} विचार के चारों ओर एक प्रभामण्डल होता है। — इसका सार, अतः तर्क, एक व्यवस्था, वस्तुतः संसार की प्रागनुभव व्यवस्था, प्रस्तुत करता है: अतः ''संभावनाओं'' की व्यवस्था जो संसार और विचार दोनों में ही साझी होंगी। किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि यह व्यवस्था ''पूर्णतः सरल'' होनी चाहिए। यह समस्त अनुभव से पूर्ववर्ती है, इसे समस्त अनुभव में आद्योपांत रहना चाहिए; इस पर किसी भी आनुभविक भटकाव अथवा अनिश्चितता का प्रभाव नहीं पड़ने देना चाहिए — बल्कि इसे तो सर्वाधिक शुद्ध स्फटिक होना चाहिए। किन्तु यह स्फटिक अमूर्त तो प्रतीत नहीं होता; बल्कि यह तो मूर्त, वास्तव में सर्वाधिक मूर्त, प्रतीत होता है मानो सत्तावान पदार्थों में यह सर्वाधिक कठोर पदार्थ हो (''ट्रेकटेटस लॉजिको-फ़िलोसफ़िकस'' न. 5.5563)। | ||
हमें यह भ्रम है कि हमारी अन्वेषणा की विशिष्टता, गहनता, एवं अपरिहार्यता भाषा के अनुपमेय सार को ग्रहण करने के प्रयत्न में निहित है; यानी प्रतिज्ञप्ति, शब्द, प्रमाण, सत्य, अनुभव इत्यादि के प्रत्ययों में पाई जाने वाली व्यवस्था में। यह व्यवस्था तो — यूँ कहिये कि — ''परा''-प्रत्ययों के मध्य ''परा''-व्यवस्था है। “भाषा”, “अनुभव”, “संसार” शब्दों का यदि प्रयोग है तो बेशक वह “मेज”, “दीपक”, “द्वार”, शब्दों के समान ही साधारण होना चाहिए। | हमें यह भ्रम है कि हमारी अन्वेषणा की विशिष्टता, गहनता, एवं अपरिहार्यता भाषा के अनुपमेय सार को ग्रहण करने के प्रयत्न में निहित है; यानी प्रतिज्ञप्ति, शब्द, प्रमाण, सत्य, अनुभव इत्यादि के प्रत्ययों में पाई जाने वाली व्यवस्था में। यह व्यवस्था तो — यूँ कहिये कि — ''परा''-प्रत्ययों के मध्य ''परा''-व्यवस्था है। “भाषा”, “अनुभव”, “संसार” शब्दों का यदि प्रयोग है तो बेशक वह “मेज”, “दीपक”, “द्वार”, शब्दों के समान ही साधारण होना चाहिए। |