5,960
edits
No edit summary |
No edit summary |
||
Line 732: | Line 732: | ||
300. हमारे विचारों के सभी संशोधनों का स्तर एक जैसा नहीं होता। | 300. हमारे विचारों के सभी संशोधनों का स्तर एक जैसा नहीं होता। | ||
301. मान लीजिए कि यह सत्य न होता कि पृथ्वी का अस्तित्व मेरे जन्म से बहुत पहले से है – तो इस भूल का हमें पता भी कैसे चलता?<references /> | 301. मान लीजिए कि यह सत्य न होता कि पृथ्वी का अस्तित्व मेरे जन्म से बहुत पहले से है – तो इस भूल का हमें पता भी कैसे चलता? | ||
302. यह कहने से कोई लाभ नहीं होगा कि "संभवतः हम भूल कर रहे हैं" क्योंकि, किसी ''अन्य प्रमाण'' के विश्वसनीय ''न'' होने पर, वर्तमान प्रमाण का भी औचित्य नहीं रहता। | |||
303. यदि हम परिकलन में सर्वदा भूल करते हों, उदाहरणार्थ बारह गुणा बारह का परिकलन हम एक सौ चवालीस नहीं करते तो, हम किसी भी परिकलन पर विश्वास क्यों करें? बेशक यह मिथ्या अभिव्यक्ति है। | |||
304. किन्तु अभी तो मैं बारह गुणा बारह के एक सौ चवालीस परिकलन के बारे में ''भूल नहीं कर रहा''। कुछ समय बाद मैं कह सकता हूँ कि अभी तो मैं चकरा गया था किन्तु यह नहीं कह सकता कि मैं भूल कर रहा था। | |||
305. यहाँ ''भी'' एक ऐसे चरण की आवश्यकता है जैसा कि सापेक्षता सिद्धान्त में लेना पड़ता है। | |||
306. "मैं नहीं जानता कि यह हाथ है।" किन्तु क्या आप "हाथ" शब्द का अर्थ जानते हैं? यह न कहें "मैं जानता हूँ कि अब मेरे लिए इसका क्या अर्थ है।" और क्या यह आनुभविक तथ्य नहीं है कि – ''यह'' शब्द ''इस'' प्रकार प्रयुक्त होता है ? | |||
307. विचित्र बात यह है कि जब मैं शब्द-प्रयोग के बारे में पूर्णतः आश्वस्त रहता हूँ, कोई शंका नहीं रखता, तो भी मैं अपने शब्द-प्रयोग का कोई आधार नहीं दे पाता। प्रयास करने पर मैं हजारों ''आधार'' दे सकता हूँ किन्तु उनमें से कोई भी उस विषयवस्तु जितने सुनिश्चित नहीं होंगे जिसके वे आधार हैं। | |||
308. 'ज्ञान' और 'निश्चितता' भिन्न ''कोटियों'' के विषय हैं। वे 'अनुमान' और 'आश्वासन' जैसी दो भिन्न 'मानसिक अवस्थाएँ' नहीं होतीं। (यहाँ मेरी मान्यता है कि "मैं जानता हूँ कि 'संशय' शब्द का (उदाहरणार्थ) क्या अर्थ है" और इस वाक्य से पता चलता है कि ' संशय' शब्द की कोई तार्किक भूमिका होती है।) अभी तो हमारी रुचि निश्चितता में न होकर ज्ञान में है। यानी, हमारी रुचि इस तथ्य में है कि निर्णय को संभव बनाने के लिए कुछ आनुभविक प्रतिज्ञप्तियों को संशय-रहित मानना ही पड़ेगा। या फिर: मेरी यह मान्यता है कि आनुभविक प्रतिज्ञप्ति के आकार वाली प्रत्येक प्रतिज्ञप्ति आनुभविक प्रतिज्ञप्ति नहीं होती| | |||
309. कहीं ऐसा तो नहीं कि नियम और आनुभविक प्रतिज्ञप्ति मिल कर एक हो गये हों ? | |||
310. एक विद्यार्थी और एक अध्यापक । शिष्य किसी भी बात की व्याख्या नहीं करने देता क्योंकि वह निरंतर शब्दों के अर्थ, वस्तुओं के अस्तित्व के बारे में संशय करता है और टोकता जाता है । अध्यापक कहता है "टोको मत और मेरे कहे अनुसार कार्य करो। इस समय तुम्हारे संशयों का कोई अर्थ ही नहीं है।" | |||
311. और कल्पना कीजिए कि विद्यार्थी ऐतिहासिक तथ्यों की सत्यता पर (उनसे जुड़ी सभी बातों पर) – और पृथ्वी के सौ वर्ष पूर्व के अस्तित्व पर भी शंका करे। | |||
312. मुझे तो यह संशय व्यर्थ लगता है। किन्तु तब – क्या इतिहास पर हमारा ''विश्वास'' भी व्यर्थ नहीं है? नहीं; इससे तो अनेक बातें जुड़ी हैं। | |||
313. तो क्या ''इसी कारण'' हम किसी प्रतिज्ञप्ति पर विश्वास करते हैं? हाँ – "विश्वास" का व्याकरण विश्वस्त प्रतिज्ञप्ति के व्याकरण से जुड़ा होता है। | |||
314. किसी विद्यार्थी द्वारा यह पूछे जाने की कल्पना कीजिए: "क्या जब मैं मेज़ की ओर से मुड़ जाता हूँ, और जब उसे ''कोई'' नहीं देखता, तब भी क्या वह वहाँ होती है?" क्या अध्यापक को उसे आश्वस्त करते हुए कहना होगा: "बेशक, उसका अस्तित्व रहता है!"? | |||
संभवतः अध्यापक अधीर हो जाए, किन्तु उसे विश्वास रहेगा कि धीरे-धीरे विद्यार्थी ऐसे प्रश्न पूछना बन्द कर देगा। | |||
315. यानी अध्यापक को यह भान होगा कि यह प्रश्न पूछे जाने योग्य कतई नहीं है। | |||
और विद्यार्थी के द्वारा प्रकृति की नियमवत्ता यानी आगमनात्मक तर्कों के औचित्य पर संदेह करने पर भी यही होगा – अध्यापक को भान होगा कि ऐसे प्रश्नों से तो गाड़ी अटक जाएगी और बात आगे नहीं बढ़ेगी। – और अध्यापक सही होगा। यह तो किसी कमरे में किसी वस्तु को खोजने जैसा ही होगा; मानो कोई व्यक्ति मेज़ की दराज खोलता है और वहाँ उस वस्तु को नहीं पाता; उस दराज को बंद करने के बाद वह फिर उसे दुबारा खोलता है कि कहीं अब वह वस्तु वहीं तो नहीं है, और बारम्बार यही करता रहता है। उसने वस्तुओं को खोजना सीखा ही नहीं है । इसी प्रकार इस विद्यार्थी ने भी प्रश्नों को पूछना नहीं सीखा है। उसने ''उस'' खेल को, जिसे हम उसे सिखाने का प्रयत्न कर रहे हैं, नहीं सीखा है। | |||
316. पर इतिहास के अपने पाठ को रोककर पृथ्वी के अस्तित्व... पर संशय जताने वाले शिष्य की भी क्या यही स्थिति नहीं होती ? | |||
317. इस संशय का हमारे खेल से सम्बन्धित संशयों से कोई सरोकार नहीं है। (किन्तु हमने इस खेल को भी तो नहीं ''चुना'' है!) | |||
12.3.51 | |||
318. 'यह प्रश्न तो पैदा ही नहीं होता।' इसका उत्तर तो कोई ''पद्धति'' ही होगी। किन्तु पद्धति-सम्बन्धी प्रतिज्ञप्तियों और किसी पद्धति में अन्तर्निहित प्रतिज्ञप्तियों में कोई सुस्पष्ट सीमा नहीं होती। | |||
319. किन्तु तब क्या हमें यह नहीं कहना पड़ेगा कि तार्किक प्रतिज्ञप्तियों और आनुभविक प्रतिज्ञप्तियों में कोई सुस्पष्ट सीमा नहीं होती? सुस्पष्टता के अभाव का कारण तो ''नियम'' और आनुभविक प्रतिज्ञप्ति में कोई सीमा न होना है। | |||
320. यहाँ याद रहे कि 'प्रतिज्ञप्ति' का प्रत्यय स्वयं ही सुस्पष्ट प्रत्यय नहीं है। | |||
321. क्या मैं यही नहीं कह रहा: किसी भी आनुभविक प्रतिज्ञप्ति को प्राक्कल्पना बनाया जा सकता है – और तब वह विवरण का मानदण्ड बन जाती है। किन्तु मुझे इस पर भी शक है। इस वाक्य में अतिव्याप्ति दोष हैं। हम यही कहना चाहते हैं "किसी भी आनुभविक प्रतिज्ञप्ति को सिद्धान्ततः ... में परिवर्तित किया जा सकता है", किन्तु यहाँ "सिद्धान्ततः" का क्या अर्थ है? यह तो ''ट्रैक्टेटस'' की याद दिलाता है। | |||
322. विद्यार्थी द्वारा मनुष्यों की याददाश्त से पूर्व पर्वत के अस्तित्व को अस्वीकार कर देने पर क्या होगा? | |||
हम कहेंगे कि इस संशय का कोई ''आधार'' नहीं है। | |||
323. यानी उचित संशय का आधार होना चाहिए? | |||
हम यह भी कहेंगे : "समझदार मनुष्य इस पर विश्वास करते हैं।" | |||
324. अतः, वैज्ञानिक आधार होने पर भी जो लोग बातों को नहीं मानते उन्हें हम समझदार नहीं कहते। | |||
325 . जब हम कहते हैं कि हम अमुक बातों को ''जानते'' हैं, तो हमारा अभिप्राय होता है कि हमारी स्थिति में कोई भी समझदार व्यक्ति उन बातों को जान सकता है और उन पर संशय करना नासमझी होगी। अतः, मूअर भी न केवल यह कहना चाहते हैं कि उन्हें अमुक बातों की जानकारी है, अपितु वे यह भी कहना चाहते हैं कि उनकी स्थिति में प्रत्येक समझदार व्यक्ति को भी उन बातों की जानकारी होगी। | |||
326. ''इस'' परिस्थिति में उचित विश्वास का निर्धारण कौन करता है? | |||
327. अतः यह कहा जा सकता है: "समझदार व्यक्ति यह मानता है कि: पृथ्वी का अस्तित्व उसके जन्म से बहुत पहले से है, उसने अपना जीवन पृथ्वी की सतह पर या फिर उसके निकट ही बिताया है, वह कभी भी चाँद पर नहीं गया है, उसमें भी अन्य व्यक्तियों के समान स्नायु-मण्डल एवं अन्य माँस-पेशियां, इत्यादि, इत्यादि हैं।" | |||
328. "इसे मैं अपने नाम लु. वि. की तरह जानता हूँ।" | |||
329. "यदि कोई ''इस पर'' सन्देह करे – और "सन्देह" का यहाँ चाहे जो भी अर्थ हो – वह इस खेल को सीख ही नहीं पाएगा। | |||
330. अतः यहाँ "मैं जानता हूँ..." वाक्य किन्हीं विशिष्ट बातों पर विश्वास करने की तत्परता को व्यक्त करता है।<references /> |