ऑन सर्टेन्टि: Difference between revisions

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550. जब कोई किसी बात पर विश्वास करता है तब हम सदैव इस प्रश्न का उत्तर नहीं दे सकते 'वह उस पर विश्वास क्यों करता है?'; किन्तु यदि वह किसी बात को जानता है तो इस प्रश्न का उत्तर होना ही चाहिए कि "वह कैसे जानता है?"।<references />
550. जब कोई किसी बात पर विश्वास करता है तब हम सदैव इस प्रश्न का उत्तर नहीं दे सकते 'वह उस पर विश्वास क्यों करता है?'; किन्तु यदि वह किसी बात को जानता है तो इस प्रश्न का उत्तर होना ही चाहिए कि "वह कैसे जानता है?"।
 
551. इस प्रश्न के उत्तर की स्थिति में वह उत्तर सामान्य रूप में स्वीकृत मान्यताओं के अनुकूल होना चाहिए। ''ऐसी'' बात को ऐसे ही जाना जाता है।
 
552. क्या मैं जानता हूँ कि मैं इस समय आराम-कुर्सी पर बैठा हूँ? – क्या मैं यह नहीं जानता?! वर्तमान परिस्थितियों में कोई भी यह नहीं कहेगा कि मैं इसे जानता हूँ; किन्तु, उदाहरणार्थ, कोई यह भी नहीं कहेगा कि मैं जीवित हूँ। साधारणतः, सड़क पर जाने वाले व्यक्तियों के बारे में भी कोई ऐसा नहीं कहेगा ।
 
किन्तु ऐसा न कहने के कारण क्या यह बात ''असत्य'' हो जाती है?
 
553. यह अजीब बात है: जब मैं बिना किसी विशेष अवसर के कहता हूँ कि "मैं जानता हूँ" – उदाहरणार्थ "मैं जानता हूँ कि इस समय मैं कुर्सी पर बैठा हुआ हूँ", तो यह कथन मुझे अनुचित एवं धृष्ट लगता है। किन्तु जब मैं यही कथन किसी ऐसी स्थिति में कहता हूँ जहाँ इसकी आवश्यकता होती है तो इसकी सत्यता के बारे में किसी अतिरिक्त निश्चितता के बिना भी यह कथन पूर्णत: उचित और सामान्य लगता है।
 
554. अपने भाषा-खेल में यह कथन धृष्ट नहीं है। वहाँ इसकी स्थिति साधारण मानवीय भाषा-खेल से अधिक नहीं है। क्योंकि वहाँ इसका सीमित प्रयोग है।
 
किन्तु संदर्भ के बिना यह वाक्य अविलम्ब कृत्रिम लगने लग जाता है। क्योंकि तब ऐसा लगने लगता है मानो मैं आग्रह कर रहा होऊँ कि कुछ ऐसी वस्तुएं हैं जिन्हें मैं ''जानता'' हूँ। उनके बारे में ईश्वर भी मुझे कुछ बतला नहीं सकता।
 
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555. हम कहते हैं कि हम जानते हैं कि आग पर रखने से पानी खौलता है। हम कैसे जानते हैं? अनुभव ने हमें यह सिखाया है। – मैं कहता हूँ "मैं जानता हूँ कि आज सुबह मैंने नाश्ता किया था"; अनुभव ने मुझे यह नहीं सिखाया । हम यह भी कहते हैं: "मैं जानता हूँ कि उसे पीड़ा हो रही है"। हर बार भाषा-खेल भिन्न है, हर बार हम ''सुनिश्चित'' होते हैं, और लोग भी हमसे सहमत होते हैं कि हर बार हम जानने ''की स्थिति'' में हैं। यही कारण है कि भौतिक-शास्त्र की प्रतिज्ञप्तियां आम पाठ्य-पुस्तकों में पायी जाती है।
 
जब कोई कहता है कि वह कुछ ''जानता'' है, तो वह कोई ऐसी बात होनी चाहिए जिसके बारे में आम राय हो कि वह जानने की स्थिति में है।
 
556. हम यह नहीं कहते: वह इस पर विश्वास करने की स्थिति में है।
 
किन्तु, हम कहते ही हैं: "इस परिस्थिति में यह मानना (या "इस पर विश्वास करना") उचित है"।
 
557. अमुक स्थिति में अमुक बात को (चाहे वह गलत ही क्यों न हो) विश्वासपूर्वक मानने के औचित्य का निर्णय तो कोर्ट-मार्शल द्वारा ही किया जा सकता है।
 
558. हम कहते हैं, हम जानते हैं कि अमुक परिस्थितियों में पानी खौलता है बर्फ का रूप नहीं लेता। क्या हमारे गलत होने की कल्पना की जा सकती है? क्या किसी गलती से हमारा संपूर्ण विवेक ही नहीं गड़बड़ा जाएगा? या फिर: यदि यही गलत होगा तो फिर ठीक क्या होगा? क्या कोई ऐसी बात खोज पाएगा जिसके कारण हमें कहना पड़े: "यह गलती थी"?
 
भविष्य में चाहे कुछ भी हो, पानी की कोई भी गति हो, – हम ''जानते'' हैं कि ''अब तक'' अनगिनत बार उसकी यही गति हुई है।
 
यह तथ्य हमारे भाषा-खेल के आधार में रच-बस गया है।
 
559. आपको यह याद रखना चाहिए कि भाषा-खेल अननुमेय है। मेरा अभिप्राय है: यह आधारों पर टिका हुआ नहीं है। यह उचित (अथवा अनुचित) नहीं होता।
 
इसका अस्तित्व है – हमारे जीवन के समान।
 
560. और जानने का प्रत्यय भाषा-खेल के प्रत्यय से जुड़ा है।
 
561. "मैं जानता हूँ" और "आप इस पर भरोसा कर सकते हैं"। किन्तु उत्तर कथन को पूर्वकथन से बदला नहीं जा सकता।
 
562. किसी ऐसी भाषा की कल्पना तो करनी ही होगी जिसमें 'ज्ञान' का ''हमारा'' प्रत्यय न हो।
 
563. ठोस आधारों के अभाव में भी हम कहते हैं "मैं जानता हूँ कि वह वेदना-ग्रस्त है"। – क्या यह ऐसा कहना है "मुझे निश्चय है कि वह..."? – नहीं। "मुझे निश्चय है" कहने से आपको मेरी मनोगत निश्चयात्मकता का पता चलता है। "मैं जानता हूँ" कहने का अभिप्राय यह है कि जानकार मैं और गैरजानकार अन्य व्यक्ति में (संभवत: अनुभव की कोटि में भेद पर आधारित) भिन्नता का कारण जानकारी का भेद है।
 
गणित में जब मैं कहता हूँ "मैं जानता हूँ" तो उसका औचित्य कोई उपपत्ति होती है।
 
यदि इन दोनों स्थितियों में "मैं जानता हूँ" कहने के बजाय हम कहते हैं "आप इस पर विश्वास कर सकते हैं" तो दोनों के प्रमाण का स्वरूप ही भिन्न हो जाता है।
 
प्रमाण की भी कोई सीमा होती है।
 
564. कोई भाषा खेल: ईंटों को लाना, उपलब्ध ईंटों की संख्या बताना । इस संख्या का कभी तो हिसाब लगाया जाता है, और कभी गिन कर बताया जाता है। फिर प्रश्न उठता है: "क्या आपकी मान्यता है कि ईंटें इतनी हैं?" और इसका उत्तर होता है "मैं जानता हूँ कि ईंटें इतनी हैं – मैंने उन्हें हाल ही में गिना है"। किन्तु यहाँ "मैं जानता हूँ" कथन का परित्याग किया जा सकता है। बहरहाल, यदि किसी बात को सुनिश्चित करने के अनेक तरीके हों, जैसे गिनना, तौलना, चट्टे की नपाई करना, तो "मैं जानता हूँ" कथन को हम ''कैसे'' जानते हैं से प्रतिस्थापित किया जा सकता है।
 
565. किन्तु यहाँ ''इसे'' "पट्टिका" ''इसे'' "स्तम्भ" इत्यादि कहते हैं इस 'ज्ञान' का प्रश्न ही नहीं उठता।
 
566. न ही मेरा भाषा-खेल (नम्बर 2)<ref>''फ़िलोसॉफ़िकल इन्वेस्टिगेशंस'' §2. सं.</ref> सीखने वाला शिशु यह कहना सीखता है कि "मैं जानता हूँ कि इसे 'पट्टिका' कहते हैं।"
 
बेशक, ऐसा भाषा-खेल होता है जिसमें शिशु ''उस'' वाक्य का प्रयोग करता है। ऐसे खेल की यह पूर्वापेक्षा है कि शिशु नाम के साथ ही उसके प्रयोग में भी समर्थ हो जाता है। (मानो कोई मुझे कहे "इस रंग को... कहते हैं"।) – अतः, यदि शिशु ने ईंट का भाषा-खेल सीखा है, तो हम कुछ ऐसा कह सकते हैं "और इस ईंट को '...' कहते हैं", और इस प्रकार मूल भाषा-खेल का ''विस्तार'' होता है।
 
567. और अब, क्या मेरा यह ज्ञान कि मुझे लु.वि. कहते हैं, मेरे इस ज्ञान जैसा है कि पानी 100° से. पर उबलता है? बेशक प्रश्न पूछने का यह ढंग ही गलत है।
 
568. यदि मेरा कोई नाम कभी-कभार ही प्रयुक्त किया जाए तो यह सम्भावना है कि मैं उसे न जानूँ। यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि मैं अपना नाम जानता हूँ क्योंकि अन्य लोगों की तरह मैं भी उसका बारम्बार प्रयोग करता हूँ।
 
569. आन्तरिक अनुभव यह नहीं बतलाता कि मैं किसी बात को ''जानता'' हूँ।
 
अतः, "मैं जानता हूँ कि मेरा नाम" मेरे ऐसा कहने पर भी स्पष्टतः यह कोई आनुभविक प्रतिज्ञप्ति नहीं होती, – – –।
 
570. "मैं जानता हूँ कि यह मेरा नाम है; हम में से प्रत्येक वयस्क अपना नाम जानता है।"
 
571. "मेरा नाम... है – आप इस पर भरोसा कर सकते हैं। यदि यह गलत निकले तो भविष्य में आप कभी भी मुझ पर भरोसा न करें।"
 
572. क्या मैं नहीं जानता कि मैं अपना नाम जानने जैसी बात के बारे में गलती नहीं कर सकता?
 
यह इन शब्दों से प्रदर्शित होता है: "यदि वह गलत है तो मैं पागल हूँ।" हाँ, पर वे तो शब्द हैं; किन्तु भाषा के प्रयोग पर इसका क्या प्रभाव है?
 
573. क्या इसका कारण यह है कि मैं इससे विपरीत किसी भी बात पर विश्वास कर ही नहीं सकता?
 
574. प्रश्न तो यह है कि यह प्रतिज्ञप्ति किस प्रकार की है: "मैं जानता हूँ कि इस बारे में मैं गलती नहीं कर सकता", या फिर "मैं इस बारे में गलती नहीं कर सकता"?
 
"मैं जानता हूँ" यह अभिव्यक्ति आधार रहित प्रतीत होती है: मैं तो सिर्फ इसे ''जानता'' हूँ। किन्तु, यदि यहाँ गलती करना सम्भव हो, तो मेरे ज्ञान की जाँच भी संभव होनी चाहिए।
 
575. अत:, "मैं जानता हूँ" अभिव्यक्ति का उद्देश्य मेरी विश्वसनीयता को इंगित करना हो सकता है। किन्तु जहाँ यह मेरी विश्वसनीयता इंगित करती है वहाँ अनुभव से इस संकेत की उपयोगिता का पता चलता है।
 
576. हम कह सकते हैं, "मैं कैसे जानता हूँ कि मैं अपने नाम के बारे में गलती नहीं कर रहा?" – और इसका यह उत्तर होने पर "मैंने इसका कई बार प्रयोग किया है" मैं पूछ सकता हूँ "मैं कैसे जानता हूँ कि मैं ''इस'' बारे में गलती नहीं कर रहा?" पर यहाँ "मैं कैसे जानता हूँ" अभिव्यक्ति का कोई महत्त्व नहीं रह जाता।
 
577. "अपने नाम के बारे में मेरा ज्ञान सुनिश्चित है।"
 
इससे विपरीत किसी भी युक्ति पर मैं ध्यान नहीं दूँगा ।
 
और "मैं ध्यान नहीं दूँगा" अभिव्यक्ति का क्या अर्थ होता है? क्या यह किसी इच्छा की अभिव्यक्ति है?
 
578. किन्तु क्या कोई विद्वान् मुझे यह नहीं बतला सकता कि मैं सत्य को नहीं जानता? ताकि मैं उससे कहूँ "मेरी आँखें खोलिए"? किन्तु तब मुझे अपनी आँखों को खोलना पड़ेगा।
 
579. प्रत्येक व्यक्ति का अपने नाम को भली-भाँति जानना व्यक्तिनामवाची भाषा-खेल का अंग है।
 
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580. ऐसा तो हो ही सकता है कि जब भी मैं "मैं जानता हूँ" कहूँ, वह गलत निकले। (प्रदर्शन करना)
 
581. किन्तु, हो सकता है कि मैं फिर भी अपने आपको रोक न पाऊँ और "मैं जानता हूँ..." कहता रहूँ। किन्तु अपने आप से पूछें: इस अभिव्यक्ति को शिशु ने कैसे सीखा?
 
582. "मैं जानता हूँ" का यह अर्थ हो सकता है: मैं इससे पहले से परिचित हूँ – या फिर: ऐसा ही है।
 
583. "मैं जानता हूँ कि... में इसका नाम '...' है।" – आप कैसे जानते हैं? –"मैंने... सीखा है"।
 
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