ऑन सर्टेन्टि: Difference between revisions

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{{ParUG|9}} तो क्या मैं अपने व्यवहार में यह सुनिश्चित करता हूँ कि मैं जानता हूँ कि यह एक हाथ – यानी, मेरा हाथ है?
{{ParUG|9}} तो क्या मैं अपने व्यवहार में यह सुनिश्चित करता हूँ कि मैं जानता हूँ कि यह एक हाथ – यानी, मेरा हाथ है?


{{ParUG|10}} मैं जानता हूँ कि एक बीमार व्यक्ति यहाँ लेटा हुआ है? बकवास! मैं उसके सिरहाने बैठा हूँ, मैं उसके चेहरे को गौर से देख रहा हूँ। – क्या फिर भी मैं यह नहीं जानता कि यहाँ एक बीमार व्यक्ति लेटा है? यह प्रश्न और यह कथन दोनों उसी तरह निरर्थक हैं जैसे मेरा किसी से यह कहना कि ‘मैं यहाँ हूँ।’ तो क्या “2 × 2 = 4” कोई गणितीय प्रतिज्ञप्ति न होकर कभी भी उसी तरह निरर्थक है? “2 × 2 = 4” तो गणित में न तो “कभी” और न ही ‘सदा’ – सत्य प्रतिज्ञप्ति है, किन्तु चीनी भाषा में लिखित अथवा उच्चारित “2 × 2 = 4” वाक्य का भिन्न अर्थ हो सकता है या फिर उस भाषा में यह वाक्य निरर्थक भी हो सकता है, और इससे यह पता चलता है कि प्रयोग में ही इस प्रतिज्ञप्ति का अर्थ होता है। और “मैं जानता हूँ कि यहाँ पर एक बीमार व्यक्ति लेटा हुआ है” यह प्रतिज्ञप्ति किसी ''अनुपयुक्त'' स्थिति में प्रयुक्त होने पर भी निरर्थक न लगकर, सामान्य लगती है क्योंकि इसके अनुरूप किसी स्थिति की कल्पना की जा सकती है और हम सोचते हैं कि “मैं जानता हूँ कि...” शब्द संशय-रहित सभी स्थितियों में प्रयुक्त किये जा सकते हैं, और इसीलिए उनमें सन्देह की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
{{ParUG|10}} मैं जानता हूँ कि एक बीमार व्यक्ति यहाँ लेटा हुआ है? बकवास! मैं उसके सिरहाने बैठा हूँ, मैं उसके चेहरे को गौर से देख रहा हूँ। – क्या फिर भी मैं यह नहीं जानता कि यहाँ एक बीमार व्यक्ति लेटा है? यह प्रश्न और यह कथन दोनों उसी तरह निरर्थक हैं जैसे मेरा किसी से यह कहना कि ‘मैं यहाँ हूँ।’ तो क्या “2 × 2 = 4” कोई गणितीय प्रतिज्ञप्ति न होकर कभी भी उसी तरह निरर्थक है? “2 × 2 = 4” तो गणित में न तो “कभी” और न ही ‘सदा’ – सत्य प्रतिज्ञप्ति है, किन्तु चीनी भाषा में लिखित अथवा उच्चारित “2 × 2 = 4” वाक्य का भिन्न अर्थ हो सकता है या फिर उस भाषा में यह वाक्य निरर्थक भी हो सकता है, और इससे यह पता चलता है कि प्रयोग में ही इस प्रतिज्ञप्ति का अर्थ होता है। और “मैं जानता हूँ कि यहाँ पर एक बीमार व्यक्ति लेटा हुआ है” यह प्रतिज्ञप्ति किसी ''अनुपयुक्त'' स्थिति में प्रयुक्त होने पर भी निरर्थक न लगकर, सामान्य लगती है क्योंकि इसके अनुरूप किसी स्थिति की कल्पना की जा सकती है और हम सोचते हैं कि “मैं जानता हूँ कि....” शब्द संशय-रहित सभी स्थितियों में प्रयुक्त किये जा सकते हैं, और इसीलिए उनमें सन्देह की कल्पना भी नहीं की जा सकती।


{{ParUG|11}} “मैं जानता हूँ” अभिव्यक्ति के प्रयोग का वैशिष्ट्य हम समझ ही नहीं पाते।
{{ParUG|11}} “मैं जानता हूँ” अभिव्यक्ति के प्रयोग का वैशिष्ट्य हम समझ ही नहीं पाते।
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{{ParUG|12}} – क्योंकि “मैं जानता हूँ” अभिव्यक्ति किसी ऐसी परिस्थिति का विवरण देती प्रतीत होती है जिसमें ज्ञात विषय की किसी तथ्य के समान गारण्टी दी गई हो। “मैं सोचता था कि मैं जानता हूँ” इस अभिव्यक्ति को हम सर्वदा भूल जाते हैं।
{{ParUG|12}} – क्योंकि “मैं जानता हूँ” अभिव्यक्ति किसी ऐसी परिस्थिति का विवरण देती प्रतीत होती है जिसमें ज्ञात विषय की किसी तथ्य के समान गारण्टी दी गई हो। “मैं सोचता था कि मैं जानता हूँ” इस अभिव्यक्ति को हम सर्वदा भूल जाते हैं।


{{ParUG|13}} क्योंकि “ऐसा है” प्रतिज्ञप्ति का अनुमान किसी अन्य व्यक्ति के “मैं जानता हूँ कि ऐसा है” कहने से नहीं किया जा सकता न ही इसका अनुमान इसे इस कथन से जोड़कर किया जा सकता है कि यह झूठ नहीं है। – किन्तु “ऐसा है” का अनुमान क्या मैं अपने ही कथन “मैं जानता हूँ” से नहीं कर सकता? अवश्य; और “वहाँ एक हाथ है” इस प्रतिज्ञप्ति की निष्पत्ति “वह जानता है कि वहाँ एक हाथ है” इस प्रतिज्ञप्ति से की जा सकती है। किन्तु उसके “मैं जानता हूँ कि...” कहने से यह निष्पन्न नहीं होता कि वह वास्तव में इसको जानता है।
{{ParUG|13}} क्योंकि “ऐसा है” प्रतिज्ञप्ति का अनुमान किसी अन्य व्यक्ति के “मैं जानता हूँ कि ऐसा है” कहने से नहीं किया जा सकता न ही इसका अनुमान इसे इस कथन से जोड़कर किया जा सकता है कि यह झूठ नहीं है। – किन्तु “ऐसा है” का अनुमान क्या मैं अपने ही कथन “मैं जानता हूँ” से नहीं कर सकता? अवश्य; और “वहाँ एक हाथ है” इस प्रतिज्ञप्ति की निष्पत्ति “वह जानता है कि वहाँ एक हाथ है” इस प्रतिज्ञप्ति से की जा सकती है। किन्तु उसके “मैं जानता हूँ कि....” कहने से यह निष्पन्न नहीं होता कि वह वास्तव में इसको जानता है।


{{ParUG|14}} वह वस्तुतः जानता है इस बात को तो सिद्ध करना होगा।
{{ParUG|14}} वह वस्तुतः जानता है इस बात को तो सिद्ध करना होगा।
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{{ParUG|20}} उदाहरणार्थ, “बाह्य जगत् की सत्ता पर संशय करने” का अर्थ किसी ऐसे ग्रह की सत्ता पर संशय करना नहीं होता जिसकी सत्ता को बाद के प्रेक्षणों ने सिद्ध किया हो। – या फिर, क्या मूअर यह कहना चाहते हैं कि यह उनका हाथ है इस के बारे में जानने और शनि ग्रह की सत्ता के बारे में जानने में गुणात्मक भेद होता है? अन्यथा शनि ग्रह की खोज के बारे में, और उसकी सत्ता के बारे में शंकालुओं को बतलाना और यह कहना संभव होना चाहिए कि उसकी सत्ता बाह्य जगत् की सत्ता-सिद्धि से भी सिद्ध हो जाती है।
{{ParUG|20}} उदाहरणार्थ, “बाह्य जगत् की सत्ता पर संशय करने” का अर्थ किसी ऐसे ग्रह की सत्ता पर संशय करना नहीं होता जिसकी सत्ता को बाद के प्रेक्षणों ने सिद्ध किया हो। – या फिर, क्या मूअर यह कहना चाहते हैं कि यह उनका हाथ है इस के बारे में जानने और शनि ग्रह की सत्ता के बारे में जानने में गुणात्मक भेद होता है? अन्यथा शनि ग्रह की खोज के बारे में, और उसकी सत्ता के बारे में शंकालुओं को बतलाना और यह कहना संभव होना चाहिए कि उसकी सत्ता बाह्य जगत् की सत्ता-सिद्धि से भी सिद्ध हो जाती है।


{{ParUG|21}} वास्तव में मूअर के दृष्टिकोण का अर्थ यह है: ‘जानने’ के प्रत्यय में और ‘विश्वास होने’, ‘अनुमान करने’, ‘संशय करने’, ‘कायल होने’ जैसे प्रत्ययों में उतनी ही समानता है जितना कि “मैं जानता हूँ कि....” कथन गलत नहीं हो सकता। और यदि ऐसा है तो ऐसे वचन से कथन की सत्यता का अनुमान लगाया जा सकता है। पर यहाँ “मैं समझता था कि मैं जानता हूँ” इस अभिव्यक्ति को अनदेखा किया जा रहा है।–किन्तु यदि उपर्युक्त बात अग्राह्य है तो ''कथन'' में त्रुटि भी तार्किक रूप से असंभव होनी चाहिए। और भाषा-खेल से परिचित किसी भी व्यक्ति को यह समझना ही चाहिए – किसी भी विश्वस्त व्यक्ति के इस आश्वासन से कि वह ''जानता'' है, कुछ भी सिद्ध नहीं होता।
{{ParUG|21}} वास्तव में मूअर के दृष्टिकोण का अर्थ यह है: ‘जानने’ के प्रत्यय में और ‘विश्वास होने’, ‘अनुमान करने’, ‘संशय करने’, ‘कायल होने’ जैसे प्रत्ययों में उतनी ही समानता है जितना कि “मैं जानता हूँ कि.....” कथन गलत नहीं हो सकता। और यदि ऐसा है तो ऐसे वचन से कथन की सत्यता का अनुमान लगाया जा सकता है। पर यहाँ “मैं समझता था कि मैं जानता हूँ” इस अभिव्यक्ति को अनदेखा किया जा रहा है।–किन्तु यदि उपर्युक्त बात अग्राह्य है तो ''कथन'' में त्रुटि भी तार्किक रूप से असंभव होनी चाहिए। और भाषा-खेल से परिचित किसी भी व्यक्ति को यह समझना ही चाहिए – किसी भी विश्वस्त व्यक्ति के इस आश्वासन से कि वह ''जानता'' है, कुछ भी सिद्ध नहीं होता।


{{ParUG|22}} यदि हमें किसी ऐसे विश्वस्त व्यक्ति पर विश्वास करना पड़े जो कहता है “मैं भूल नहीं कर सकता”; या फिर जो कहता है “मैं गलत नहीं हूँ”, तो यह बात विचित्र ही होगी।
{{ParUG|22}} यदि हमें किसी ऐसे विश्वस्त व्यक्ति पर विश्वास करना पड़े जो कहता है “मैं भूल नहीं कर सकता”; या फिर जो कहता है “मैं गलत नहीं हूँ”, तो यह बात विचित्र ही होगी।
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और क्या ''यह'' आनुभविक प्रतिज्ञप्ति है: “ऐसा लगता है कि भौतिक पदार्थों का अस्तित्व है”?
और क्या ''यह'' आनुभविक प्रतिज्ञप्ति है: “ऐसा लगता है कि भौतिक पदार्थों का अस्तित्व है”?


{{ParUG|36}} “अ एक भौतिक पदार्थ है” यह एक ऐसे व्यक्ति को दी जाने वाली सीख है जिसे अभी तक या तो यह नहीं पता कि “अ” क्या है, या फिर जो “भौतिक पदार्थ” के अर्थ से अनभिज्ञ है। यानी यह वाक्य तो शब्द प्रयोग को सीखना है, पर “भौतिक पदार्थ” एक तार्किक प्रत्यय है। (जैसे कि रंग, परिमाण,....) यही कारण है कि “भौतिक पदार्थों का अस्तित्व है” जैसी कोई प्रतिज्ञप्ति प्रतिपादित नहीं की जा सकती।
{{ParUG|36}} “अ एक भौतिक पदार्थ है” यह एक ऐसे व्यक्ति को दी जाने वाली सीख है जिसे अभी तक या तो यह नहीं पता कि “अ” क्या है, या फिर जो “भौतिक पदार्थ” के अर्थ से अनभिज्ञ है। यानी यह वाक्य तो शब्द प्रयोग को सीखना है, पर “भौतिक पदार्थ” एक तार्किक प्रत्यय है। (जैसे कि रंग, परिमाण,.....) यही कारण है कि “भौतिक पदार्थों का अस्तित्व है” जैसी कोई प्रतिज्ञप्ति प्रतिपादित नहीं की जा सकती।


फिर भी हमारा सामना ऐसे असफल प्रयासों से हमेशा होता रहता है।
फिर भी हमारा सामना ऐसे असफल प्रयासों से हमेशा होता रहता है।
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{{ParUG|49}} पर याद रखें: परिकलन का निर्धारण किसी व्यावहारिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही होता है।
{{ParUG|49}} पर याद रखें: परिकलन का निर्धारण किसी व्यावहारिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही होता है।


{{ParUG|50}} हम कब यह कहते हैं कि ... × ... = ...?  जब हमने परिकलन को जाँच लिया होता है।
{{ParUG|50}} हम कब यह कहते हैं कि ...×...=...?  जब हमने परिकलन को जाँच लिया होता है।


{{ParUG|51}} यह किस प्रकार की प्रतिज्ञप्ति है: “यहाँ भूल कैसे हो सकती है!”? इसे तो तार्किक प्रतिज्ञप्ति होना चाहिए। किन्तु क्या यह ऐसा तर्क है जिसको प्रतिज्ञप्तियों द्वारा सिखाया न जा सकने के कारण हम प्रयोग में नहीं लाते। – यह एक तार्किक प्रतिज्ञप्ति है; क्योंकि यह प्रत्ययात्मक (भाषिक) परिस्थिति का विवरण देती है।
{{ParUG|51}} यह किस प्रकार की प्रतिज्ञप्ति है: “यहाँ भूल कैसे हो सकती है!”? इसे तो तार्किक प्रतिज्ञप्ति होना चाहिए। किन्तु क्या यह ऐसा तर्क है जिसको प्रतिज्ञप्तियों द्वारा सिखाया न जा सकने के कारण हम प्रयोग में नहीं लाते। – यह एक तार्किक प्रतिज्ञप्ति है; क्योंकि यह प्रत्ययात्मक (भाषिक) परिस्थिति का विवरण देती है।
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{{ParUG|55}} तो क्या यह ''प्राक्कल्पना'' संभव है कि हमारे चारों ओर फैली वस्तुओं का कोई अस्तित्व नहीं है? क्या यह अपने सभी परिकलनों में गलती कर जाने की प्राक्कल्पना जैसी नहीं होगी?
{{ParUG|55}} तो क्या यह ''प्राक्कल्पना'' संभव है कि हमारे चारों ओर फैली वस्तुओं का कोई अस्तित्व नहीं है? क्या यह अपने सभी परिकलनों में गलती कर जाने की प्राक्कल्पना जैसी नहीं होगी?


{{ParUG|56}} जब हम कहते हैं: “शायद इस ग्रह का अस्तित्व नहीं है, और इस प्रकाश-संवृति का कोई अन्य कारण है”, तो हमें किसी अस्तित्वयुक्त वस्तु के उदाहरण की आवश्यकता पड़ती है। इसका अस्तित्व नहीं है, – ''जैसे कि, उदाहरणार्थ,''.... का अस्तित्व है।
{{ParUG|56}} जब हम कहते हैं: “शायद इस ग्रह का अस्तित्व नहीं है, और इस प्रकाश-संवृति का कोई अन्य कारण है”, तो हमें किसी अस्तित्वयुक्त वस्तु के उदाहरण की आवश्यकता पड़ती है। इसका अस्तित्व नहीं है, – ''जैसे कि, उदाहरणार्थ,''..... का अस्तित्व है।


या फिर हमें कहना होगा कि ''निश्चितता'' एक ऐसी कसौटी है जिस पर कुछ चीजें अधिक और कुछ कम खरी उतरती हैं। नहीं। संशय शनै: शनै: अपने अर्थ को खोता है। यह भाषा-खेल ऐसा ही है।
या फिर हमें कहना होगा कि ''निश्चितता'' एक ऐसी कसौटी है जिस पर कुछ चीजें अधिक और कुछ कम खरी उतरती हैं। नहीं। संशय शनै: शनै: अपने अर्थ को खोता है। यह भाषा-खेल ऐसा ही है।
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{{ParUG|60}} यह कहना गलत है कि यह कागज का एक टुकड़ा है और बाद का अनुभव इस प्राक्कल्पना की पुष्टि या खण्डन करेगा, और यह कहना भी गलत है कि “मैं जानता हूँ कि यह कागज का एक टुकड़ा है”, इस वाक्य में “मैं जानता हूँ” किसी प्राक्कल्पना या फिर किसी तार्किक संकल्प से संबंधित है।
{{ParUG|60}} यह कहना गलत है कि यह कागज का एक टुकड़ा है और बाद का अनुभव इस प्राक्कल्पना की पुष्टि या खण्डन करेगा, और यह कहना भी गलत है कि “मैं जानता हूँ कि यह कागज का एक टुकड़ा है”, इस वाक्य में “मैं जानता हूँ” किसी प्राक्कल्पना या फिर किसी तार्किक संकल्प से संबंधित है।


{{ParUG|61}} ... किसी शब्द का अर्थ उसका प्रयोग है।
{{ParUG|61}} .... किसी शब्द का अर्थ उसका प्रयोग है।


क्योंकि हमारी भाषा में शामिल होने के बाद ही हम उसे जानते हैं।
क्योंकि हमारी भाषा में शामिल होने के बाद ही हम उसे जानते हैं।
Line 211: Line 211:
{{ParUG|88}} उदाहरणार्थ, ऐसा हो सकता है कि ''हमारी सारी परीक्षा'' कुछ अभिव्यक्ति-समर्थ प्रतिज्ञप्तियों को संशय-रहित करने के लिए ही हो। वे परीक्षण-विधि के दायरे में नहीं आती।
{{ParUG|88}} उदाहरणार्थ, ऐसा हो सकता है कि ''हमारी सारी परीक्षा'' कुछ अभिव्यक्ति-समर्थ प्रतिज्ञप्तियों को संशय-रहित करने के लिए ही हो। वे परीक्षण-विधि के दायरे में नहीं आती।


{{ParUG|89}} कहा जा सकता है: “... से भी बहुत पहले से पृथ्वी के अस्तित्व के पक्ष में सभी बातें हैं और उसके विपक्ष में कोई भी बात नहीं है।”
{{ParUG|89}} कहा जा सकता है: “.... से भी बहुत पहले से पृथ्वी के अस्तित्व के पक्ष में सभी बातें हैं और उसके विपक्ष में कोई भी बात नहीं है।”


फिर भी क्या मैं इससे विपरीत-कल्पना नहीं कर सकता? किन्तु प्रश्न तो यह है: ऐसी मान्यता का व्यवहार पर क्या असर पड़ेगा? – संभवत: कोई कहे: “बात यह नहीं है। मान्यता तो मान्यता है, वह व्यावहारिक हो या नहीं।” कोई सोच सकता है: यह तो मानव-मन को समझाना ही है।
फिर भी क्या मैं इससे विपरीत-कल्पना नहीं कर सकता? किन्तु प्रश्न तो यह है: ऐसी मान्यता का व्यवहार पर क्या असर पड़ेगा? – संभवत: कोई कहे: “बात यह नहीं है। मान्यता तो मान्यता है, वह व्यावहारिक हो या नहीं।” कोई सोच सकता है: यह तो मानव-मन को समझाना ही है।
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{{ParUG|102}} क्या मैं इस पर विश्वास नहीं कर सकता कि कभी, अनजाने में, शायद बेहोशी की हालत में, मुझे पृथ्वी से बहुत दूर ले जाया गया – यद्यपि दूसरे लोग इस बारे में जानते हैं फिर भी मुझे इस बारे में नहीं बताते? किन्तु यह बात मेरे अन्य विश्वासों से मेल नहीं खाती। हालांकि मैं अपनी विश्वास-पद्धति का विवरण नहीं दे सकता। फिर भी मेरे विश्वासों की एक व्यवस्था है, एक संरचना है।
{{ParUG|102}} क्या मैं इस पर विश्वास नहीं कर सकता कि कभी, अनजाने में, शायद बेहोशी की हालत में, मुझे पृथ्वी से बहुत दूर ले जाया गया – यद्यपि दूसरे लोग इस बारे में जानते हैं फिर भी मुझे इस बारे में नहीं बताते? किन्तु यह बात मेरे अन्य विश्वासों से मेल नहीं खाती। हालांकि मैं अपनी विश्वास-पद्धति का विवरण नहीं दे सकता। फिर भी मेरे विश्वासों की एक व्यवस्था है, एक संरचना है।


{{ParUG|103}} और अब यदि मैं कहूँ “यह मेरी अविचल धारणा है कि...”, तो इसका अर्थ होगा कि इस परिस्थिति में भी मेरा विश्वास किसी विशिष्ट विचारधारा का परिणाम न होकर, मेरे सभी ''प्रश्नों एवं उत्तरों'' से कुछ ऐसे जुड़ा है कि मुझे उसका पता नहीं चलता।
{{ParUG|103}} और अब यदि मैं कहूँ “यह मेरी अविचल धारणा है कि....”, तो इसका अर्थ होगा कि इस परिस्थिति में भी मेरा विश्वास किसी विशिष्ट विचारधारा का परिणाम न होकर, मेरे सभी ''प्रश्नों एवं उत्तरों'' से कुछ ऐसे जुड़ा है कि मुझे उसका पता नहीं चलता।


{{ParUG|104}} उदाहरणार्थ, मेरा यह भी दृढ़ विश्वास है कि आकाश में सूर्य कोई ऐसा छिद्र नहीं है जो स्वर्ग का मार्ग हो।
{{ParUG|104}} उदाहरणार्थ, मेरा यह भी दृढ़ विश्वास है कि आकाश में सूर्य कोई ऐसा छिद्र नहीं है जो स्वर्ग का मार्ग हो।
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{{ParUG|115}} यदि आप हर बात पर संदेह करें तो आप किसी भी बात पर संदेह नहीं कर पाऐंगे। आश्वासन संदेह के खेल की पूर्वमान्यता है।
{{ParUG|115}} यदि आप हर बात पर संदेह करें तो आप किसी भी बात पर संदेह नहीं कर पाऐंगे। आश्वासन संदेह के खेल की पूर्वमान्यता है।


{{ParUG|116}} “मैं जानता हूँ कि...” कहने के बदले क्या मूअर यह नहीं कह सकते थे: “मैं इस बारे में आश्वस्त हूँ कि...”? और फिर यह कहते: “मैं और अनेक अन्य लोग इस बारे में आश्वस्त हैं कि...।”
{{ParUG|116}} “मैं जानता हूँ कि....” कहने के बदले क्या मूअर यह नहीं कह सकते थे: “मैं इस बारे में आश्वस्त हूँ कि.....”? और फिर यह कहते: “मैं और अनेक अन्य लोग इस बारे में आश्वस्त हैं कि.....।”


{{ParUG|117}} इस बात के बारे में मैं शंकित क्यों नहीं हो सकता कि मैं कभी भी चाँद पर नहीं गया हूँ? और इस पर मैं संदेह कैसे करूँ?
{{ParUG|117}} इस बात के बारे में मैं शंकित क्यों नहीं हो सकता कि मैं कभी भी चाँद पर नहीं गया हूँ? और इस पर मैं संदेह कैसे करूँ?
Line 289: Line 289:
{{ParUG|122}} क्या सन्देह के लिए आधार की आवश्यकता नहीं है?
{{ParUG|122}} क्या सन्देह के लिए आधार की आवश्यकता नहीं है?


{{ParUG|123}} मुझे तो कहीं भी... इस बात पर सन्देह करने का आधार दिखलाई नहीं देता।
{{ParUG|123}} मुझे तो कहीं भी..... इस बात पर सन्देह करने का आधार दिखलाई नहीं देता।


{{ParUG|124}} मैं कहना चाहता हूँ: हम विवेक के सिद्धान्त के रूप में विवेक का ही प्रयोग करते हैं।
{{ParUG|124}} मैं कहना चाहता हूँ: हम विवेक के सिद्धान्त के रूप में विवेक का ही प्रयोग करते हैं।
Line 315: Line 315:
{{ParUG|133}} साधारणतया मैं अपने दोनों हाथों को देखकर उनके अस्तित्व के बारे में आश्वस्त नहीं होता। क्यों नहीं? क्या मुझे अनुभव से पता चला है कि यह व्यर्थ है? या (फिर): क्या हमने पहले किसी सार्वभौमिक आगमनात्मक नियम को सीखकर यहाँ भी उस पर विश्वास करना शुरू कर दिया? – किन्तु हमें ''विशिष्ट'' नियम की बजाय ''सार्वभौमिक'' नियम का पता पहले क्यों चलता है?
{{ParUG|133}} साधारणतया मैं अपने दोनों हाथों को देखकर उनके अस्तित्व के बारे में आश्वस्त नहीं होता। क्यों नहीं? क्या मुझे अनुभव से पता चला है कि यह व्यर्थ है? या (फिर): क्या हमने पहले किसी सार्वभौमिक आगमनात्मक नियम को सीखकर यहाँ भी उस पर विश्वास करना शुरू कर दिया? – किन्तु हमें ''विशिष्ट'' नियम की बजाय ''सार्वभौमिक'' नियम का पता पहले क्यों चलता है?


{{ParUG|134}} किसी पुस्तक को मेज़ की दराज़ में रखकर मैं उसके वहीं रखे रहने की कल्पना करता हूँ जब तक कि...। “अनुभव सदा मुझे ठीक सिद्ध करता है। पुस्तक के (यकायक) लुप्त होने का कोई प्रामाणिक अनुभव नहीं है।” किसी विशेष स्थान पर पुस्तक के होने का पक्का अनुमान होने पर भी ''कभी-कभी'' पुस्तक वहाँ उपलब्ध नहीं होती। – किन्तु अनुभव से ही हमें वास्तव में यह पता चलता है कि कोई पुस्तक लुप्त नहीं हो जाती। (उदाहरणार्थ, वह भाप बन कर शनै: शनै: उड़ नहीं जाती।) किन्तु क्या पुस्तकों इत्यादि के इस अनुभव के कारण हम यह मान लेते हैं कि पुस्तक लुप्त नहीं हुई है? – क्या हमें अपनी प्राक्कल्पना को बदल नहीं देना चाहिए? क्या हम प्राक्कल्पना-प्रणाली पर पड़े अपने अनुभव के प्रभाव को झुठला सकते हैं?
{{ParUG|134}} किसी पुस्तक को मेज़ की दराज़ में रखकर मैं उसके वहीं रखे रहने की कल्पना करता हूँ जब तक कि.....। “अनुभव सदा मुझे ठीक सिद्ध करता है। पुस्तक के (यकायक) लुप्त होने का कोई प्रामाणिक अनुभव नहीं है।” किसी विशेष स्थान पर पुस्तक के होने का पक्का अनुमान होने पर भी ''कभी-कभी'' पुस्तक वहाँ उपलब्ध नहीं होती। – किन्तु अनुभव से ही हमें वास्तव में यह पता चलता है कि कोई पुस्तक लुप्त नहीं हो जाती। (उदाहरणार्थ, वह भाप बन कर शनै: शनै: उड़ नहीं जाती।) किन्तु क्या पुस्तकों इत्यादि के इस अनुभव के कारण हम यह मान लेते हैं कि पुस्तक लुप्त नहीं हुई है? – क्या हमें अपनी प्राक्कल्पना को बदल नहीं देना चाहिए? क्या हम प्राक्कल्पना-प्रणाली पर पड़े अपने अनुभव के प्रभाव को झुठला सकते हैं?


{{ParUG|135}} क्या हम सदैव इस (या ऐसे) सिद्धान्त का अनुसरण नहीं करते कि जो हमेशा से होता चला आया है वह पुनः घटित होगा? इस सिद्धान्त के अनुसरण का क्या अभिप्राय है? क्या हम इसे अपनी युक्तियों में शामिल करते हैं? या फिर, क्या यह कोई ऐसा ''प्राकृतिक नियम'' है जिसका अनुमान-प्रक्रिया सहज ही पालन करती है? यह तो सम्भव है। यह हमारे विचार का विषय नहीं है।
{{ParUG|135}} क्या हम सदैव इस (या ऐसे) सिद्धान्त का अनुसरण नहीं करते कि जो हमेशा से होता चला आया है वह पुनः घटित होगा? इस सिद्धान्त के अनुसरण का क्या अभिप्राय है? क्या हम इसे अपनी युक्तियों में शामिल करते हैं? या फिर, क्या यह कोई ऐसा ''प्राकृतिक नियम'' है जिसका अनुमान-प्रक्रिया सहज ही पालन करती है? यह तो सम्भव है। यह हमारे विचार का विषय नहीं है।
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{{ParUG|136}} जब मूअर कहते हैं कि वे अमुक बात ''जानते'' हैं, तो वे ऐसी अनेक आनुभविक प्रतिज्ञप्तियों को गिनाते हैं जिन्हें हम बिना विशेष जाँच के ही स्वीकार कर लेते हैं; यानी, ये ऐसी प्रतिज्ञप्तियां हैं जिनकी हमारी आनुभविक प्रतिज्ञप्तियों की प्रणाली में एक विशिष्ट तार्किक भूमिका है।
{{ParUG|136}} जब मूअर कहते हैं कि वे अमुक बात ''जानते'' हैं, तो वे ऐसी अनेक आनुभविक प्रतिज्ञप्तियों को गिनाते हैं जिन्हें हम बिना विशेष जाँच के ही स्वीकार कर लेते हैं; यानी, ये ऐसी प्रतिज्ञप्तियां हैं जिनकी हमारी आनुभविक प्रतिज्ञप्तियों की प्रणाली में एक विशिष्ट तार्किक भूमिका है।


{{ParUG|137}} किसी विश्वसनीय व्यक्ति के द्वारा अपने किसी विषय के ''ज्ञान'' के बारे में मुझे भरोसा देने पर भी जरूरी नहीं कि मैं उसके ज्ञान के बारे में संतुष्ट हो जाऊँ। इससे तो उसके ज्ञान के विश्वास का पता चलता है। इसी कारण मूअर के इस आश्वासन में कि उन्हें पता है कि... हमारी कोई दिलचस्पी नहीं है। फिर भी उन्हें ज्ञात सत्य प्रतिज्ञप्तियों के उदाहरण निस्संदेह रोचक हैं। इन प्रतिज्ञप्तियों के रोचक होने का कारण उनका सार्वभौमिक सत्य होना या सार्वजनिक रूप में स्वीकृत होना न होकर, हमारे आनुभविक निर्णयों की प्रणाली में उनकी ''समान'' भूमिका होना है।
{{ParUG|137}} किसी विश्वसनीय व्यक्ति के द्वारा अपने किसी विषय के ''ज्ञान'' के बारे में मुझे भरोसा देने पर भी जरूरी नहीं कि मैं उसके ज्ञान के बारे में संतुष्ट हो जाऊँ। इससे तो उसके ज्ञान के विश्वास का पता चलता है। इसी कारण मूअर के इस आश्वासन में कि उन्हें पता है कि..... हमारी कोई दिलचस्पी नहीं है। फिर भी उन्हें ज्ञात सत्य प्रतिज्ञप्तियों के उदाहरण निस्संदेह रोचक हैं। इन प्रतिज्ञप्तियों के रोचक होने का कारण उनका सार्वभौमिक सत्य होना या सार्वजनिक रूप में स्वीकृत होना न होकर, हमारे आनुभविक निर्णयों की प्रणाली में उनकी ''समान'' भूमिका होना है।


{{ParUG|138}} उदाहरणार्थ, हमें अन्वेषण से उनमें से किसी का भी पता नहीं चलता।
{{ParUG|138}} उदाहरणार्थ, हमें अन्वेषण से उनमें से किसी का भी पता नहीं चलता।
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{{ParUG|177}} मैं जो जानता हूँ, उस पर विश्वास भी करता हूँ।
{{ParUG|177}} मैं जो जानता हूँ, उस पर विश्वास भी करता हूँ।


{{ParUG|178}} मूअर की “मैं जानता हूँ कि...” प्रतिज्ञप्ति के दोषपूर्ण प्रयोग का कारण यह है कि वे इसे “मैं वेदना-ग्रस्त हूँ” इस कथन के समान संशयरहित समझ लेते हैं। और क्योंकि “मैं इसे जानता हूँ” से “ऐसा ही है” निष्पन्न होता हैं, इसीलिए उस पर भी संशय नहीं किया जा सकता।
{{ParUG|178}} मूअर की “मैं जानता हूँ कि.....” प्रतिज्ञप्ति के दोषपूर्ण प्रयोग का कारण यह है कि वे इसे “मैं वेदना-ग्रस्त हूँ” इस कथन के समान संशयरहित समझ लेते हैं। और क्योंकि “मैं इसे जानता हूँ” से “ऐसा ही है” निष्पन्न होता हैं, इसीलिए उस पर भी संशय नहीं किया जा सकता।


{{ParUG|179}} यह कहना ठीक है: “मेरा विश्वास है कि...” एक मनोगत सत्य है लेकिन; “मैं जानता हूँ कि...” मनोगत सत्य नहीं है।
{{ParUG|179}} यह कहना ठीक है: “मेरा विश्वास है कि.....” एक मनोगत सत्य है लेकिन; “मैं जानता हूँ कि.....” मनोगत सत्य नहीं है।


{{ParUG|180}} या फिर “मेरा विश्वास है...” एक ‘अभिव्यक्ति’ है, किन्तु “मैं जानता हूँ कि...” कोई ‘अभिव्यक्ति’ नहीं है।
{{ParUG|180}} या फिर “मेरा विश्वास है.....” एक ‘अभिव्यक्ति’ है, किन्तु “मैं जानता हूँ कि.....” कोई ‘अभिव्यक्ति’ नहीं है।


{{ParUG|181}} मान लीजिए कि मूअर “मैं जानता हूँ कि...” कहने के बजाय “मैं शपथपूर्वक कहता हूँ कि...” कहते।
{{ParUG|181}} मान लीजिए कि मूअर “मैं जानता हूँ कि.....” कहने के बजाय “मैं शपथपूर्वक कहता हूँ कि.....” कहते।


{{ParUG|182}} इससे भी कच्ची बात तो यह है कि पृथ्वी ''अनादि'' है। किसी भी बालक को यह पूछने का अधिकार नहीं है कि पृथ्वी का अस्तित्व कब से है, क्योंकि सब कुछ तो उसी ''पर'' घटित होता है। यदि पृथ्वी नामक ग्रह का किसी समय – कल्पनातीत समय – उद्भव हुआ हो तो इसके उद्भव-काल को कल्पनातीत मानना होगा।
{{ParUG|182}} इससे भी कच्ची बात तो यह है कि पृथ्वी ''अनादि'' है। किसी भी बालक को यह पूछने का अधिकार नहीं है कि पृथ्वी का अस्तित्व कब से है, क्योंकि सब कुछ तो उसी ''पर'' घटित होता है। यदि पृथ्वी नामक ग्रह का किसी समय – कल्पनातीत समय – उद्भव हुआ हो तो इसके उद्भव-काल को कल्पनातीत मानना होगा।


{{ParUG|183}} “यह सुनिश्चित है कि ऑस्ट्रलित्ज़ के युद्ध के बाद नेपोलियन...। तो यह भी सुनिश्चित ही है कि उस समय पृथ्वी का अस्तित्व था।”
{{ParUG|183}} “यह सुनिश्चित है कि ऑस्ट्रलित्ज़ के युद्ध के बाद नेपोलियन.....। तो यह भी सुनिश्चित ही है कि उस समय पृथ्वी का अस्तित्व था।”


{{ParUG|184}} “यह सुनिश्चित है कि एक सौ वर्ष पहले हम इस ग्रह पर किसी अन्य ग्रह से नहीं आए हैं।” यह ऐसी बातों जैसा ही सुनिश्चित है।
{{ParUG|184}} “यह सुनिश्चित है कि एक सौ वर्ष पहले हम इस ग्रह पर किसी अन्य ग्रह से नहीं आए हैं।” यह ऐसी बातों जैसा ही सुनिश्चित है।
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{{ParUG|207}} “विचित्र संयोग है कि जिस किसी की भी खोपड़ी खोली गई उसमें मस्तिष्क पाया गया!”
{{ParUG|207}} “विचित्र संयोग है कि जिस किसी की भी खोपड़ी खोली गई उसमें मस्तिष्क पाया गया!”


{{ParUG|208}} मैं न्यूयॉर्क में किसी से टेलीफोन पर बात करता हूँ। मेरा मित्र मुझे बताता है कि उसके घर में लगे पौधों पर अमुक प्रकार की कलियाँ खिली हैं। मैं विवरण सुन-कर आश्वस्त हो जाता हूँ कि उन पौधों का... नाम है। क्या मैं पृथ्वी के अस्तित्व के बारे में भी आश्वस्त हो जाता हूँ?
{{ParUG|208}} मैं न्यूयॉर्क में किसी से टेलीफोन पर बात करता हूँ। मेरा मित्र मुझे बताता है कि उसके घर में लगे पौधों पर अमुक प्रकार की कलियाँ खिली हैं। मैं विवरण सुन-कर आश्वस्त हो जाता हूँ कि उन पौधों का..... नाम है। क्या मैं पृथ्वी के अस्तित्व के बारे में भी आश्वस्त हो जाता हूँ?


{{ParUG|209}} पृथ्वी का अस्तित्व है, यह उस पूरे ''चित्र'' का एक अंश है, जो मेरे विश्वास के आरम्भिक बिन्दु का निर्माण करता है।
{{ParUG|209}} पृथ्वी का अस्तित्व है, यह उस पूरे ''चित्र'' का एक अंश है, जो मेरे विश्वास के आरम्भिक बिन्दु का निर्माण करता है।
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{{ParUG|227}} “''क्या'' यह ऐसी बात है जिसे भुलाया जा सकता हो?!”
{{ParUG|227}} “''क्या'' यह ऐसी बात है जिसे भुलाया जा सकता हो?!”


{{ParUG|228}} “ऐसी परिस्थितियों में लोग ‘संभवत: हम भूल गए’ जैसी बातें न कहकर यह मानते हैं कि...”।
{{ParUG|228}} “ऐसी परिस्थितियों में लोग ‘संभवत: हम भूल गए’ जैसी बातें न कहकर यह मानते हैं कि....”।


{{ParUG|229}} हमारे संपूर्ण व्यवहार से ही हमारी बातों का अर्थ प्राप्त होता है।
{{ParUG|229}} हमारे संपूर्ण व्यवहार से ही हमारी बातों का अर्थ प्राप्त होता है।


{{ParUG|230}} हम अपने आप से पूछते हैं: “मैं ''जानता'' हूँ कि...” कथन का हम क्या करें? क्योंकि यह प्रश्न मानसिक क्रिया या मानसिक दशा के बारे में नहीं है।
{{ParUG|230}} हम अपने आप से पूछते हैं: “मैं ''जानता'' हूँ कि....” कथन का हम क्या करें? क्योंकि यह प्रश्न मानसिक क्रिया या मानसिक दशा के बारे में नहीं है।


और ''इसी प्रकार'' यह निर्णय लिया जाना चाहिए कि हमें कुछ ज्ञात है या नहीं।
और ''इसी प्रकार'' यह निर्णय लिया जाना चाहिए कि हमें कुछ ज्ञात है या नहीं।
Line 561: Line 561:
{{ParUG|235}} मेरी सुनिश्चित बातों का आधार मेरी मूर्खता, या मेरा भोलापन नहीं है।
{{ParUG|235}} मेरी सुनिश्चित बातों का आधार मेरी मूर्खता, या मेरा भोलापन नहीं है।


{{ParUG|236}} जब कोई कहता है “पृथ्वी का अस्तित्व बहुत पहले से नहीं है...” तो उसका संदेह किस पर है? क्या मैं जानता हूँ?
{{ParUG|236}} जब कोई कहता है “पृथ्वी का अस्तित्व बहुत पहले से नहीं है....” तो उसका संदेह किस पर है? क्या मैं जानता हूँ?


क्या इसे वैज्ञानिक मत कहेंगे? कहीं यह कोई रहस्यमय बात तो नहीं है? क्या उसे ऐतिहासिक, या फिर भौगोलिक तथ्यों को नकारने की जरूरत है?
क्या इसे वैज्ञानिक मत कहेंगे? कहीं यह कोई रहस्यमय बात तो नहीं है? क्या उसे ऐतिहासिक, या फिर भौगोलिक तथ्यों को नकारने की जरूरत है?
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{{ParUG|261}} फिलहाल, मैं पृथ्वी के सौ वर्ष पूर्व के अस्तित्व विषयक किसी तार्किक संशय की कल्पना भी नहीं कर सकता।
{{ParUG|261}} फिलहाल, मैं पृथ्वी के सौ वर्ष पूर्व के अस्तित्व विषयक किसी तार्किक संशय की कल्पना भी नहीं कर सकता।


{{ParUG|262}} मैं ऐसे व्यक्ति के अस्तित्व की कल्पना कर सकता हूँ जिसका लालन-पालन विशिष्ट परिस्थितियों में किया गया हो और जिसे यह सिखाया गया हो कि पृथ्वी पचास वर्ष पहले ही अस्तित्व में आई है और इसीलिए वह इस पर विश्वास करता हो। हम उसे बता सकते हैं: पृथ्वी तो बहुत पहले... इत्यादि। – तब हम उसे अपने संसार विषयक चित्र का वर्णन देते हैं।
{{ParUG|262}} मैं ऐसे व्यक्ति के अस्तित्व की कल्पना कर सकता हूँ जिसका लालन-पालन विशिष्ट परिस्थितियों में किया गया हो और जिसे यह सिखाया गया हो कि पृथ्वी पचास वर्ष पहले ही अस्तित्व में आई है और इसीलिए वह इस पर विश्वास करता हो। हम उसे बता सकते हैं: पृथ्वी तो बहुत पहले.... इत्यादि। – तब हम उसे अपने संसार विषयक चित्र का वर्णन देते हैं।


''समझा-बुझा'' कर ऐसा किया जा सकेगा।
''समझा-बुझा'' कर ऐसा किया जा सकेगा।
Line 671: Line 671:
{{ParUG|276}} इस विशाल भवन के अस्तित्व पर विश्वास करने के बाद ही हम इसके इस या उस कोने को देखते हैं।
{{ParUG|276}} इस विशाल भवन के अस्तित्व पर विश्वास करने के बाद ही हम इसके इस या उस कोने को देखते हैं।


{{ParUG|277}} “...पर विश्वास करने के लिए मैं बाध्य हूँ।”
{{ParUG|277}} “....पर विश्वास करने के लिए मैं बाध्य हूँ।”


{{ParUG|278}} “वस्तुस्थिति से मैं संतुष्ट हूँ।”
{{ParUG|278}} “वस्तुस्थिति से मैं संतुष्ट हूँ।”
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मनुष्य इस प्रणाली को प्रशिक्षण और निरीक्षण द्वारा प्राप्त करता है। “सीखना” मैं जान बूझकर नहीं कह रहा।
मनुष्य इस प्रणाली को प्रशिक्षण और निरीक्षण द्वारा प्राप्त करता है। “सीखना” मैं जान बूझकर नहीं कह रहा।


{{ParUG|280}} इसको देखने और उसको सुनने के बाद वह... पर शंका करने की स्थिति में नहीं रह जाता।
{{ParUG|280}} इसको देखने और उसको सुनने के बाद वह.... पर शंका करने की स्थिति में नहीं रह जाता।


{{ParUG|281}} ''मैं'', लु. वि. विश्वास करता हूँ, मुझे पक्का भरोसा है, कि मेरे मित्र के शरीर में या फिर उसके मस्तिष्क में भूसा नहीं भरा है यद्यपि इससे उलट के बारे में मेरे पास कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है। जो कुछ भी मुझे बताया गया है, जो कुछ भी मैंने पढ़ा है उसके और अपने अनुभवों के कारण ही मैं निश्चिन्त हूँ। इस पर शंका करना मुझे पागलपन लगता है – बेशक यह दूसरों के मत से भी मेल खाता है; किन्तु ''मैं'' उनसे सहमत हूँ।
{{ParUG|281}} ''मैं'', लु. वि. विश्वास करता हूँ, मुझे पक्का भरोसा है, कि मेरे मित्र के शरीर में या फिर उसके मस्तिष्क में भूसा नहीं भरा है यद्यपि इससे उलट के बारे में मेरे पास कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है। जो कुछ भी मुझे बताया गया है, जो कुछ भी मैंने पढ़ा है उसके और अपने अनुभवों के कारण ही मैं निश्चिन्त हूँ। इस पर शंका करना मुझे पागलपन लगता है – बेशक यह दूसरों के मत से भी मेल खाता है; किन्तु ''मैं'' उनसे सहमत हूँ।
Line 772: Line 772:
और विद्यार्थी के द्वारा प्रकृति की नियमवत्ता यानी आगमनात्मक तर्कों के औचित्य पर संदेह करने पर भी यही होगा – अध्यापक को भान होगा कि ऐसे प्रश्नों से तो गाड़ी अटक जाएगी और बात आगे नहीं बढ़ेगी। – और अध्यापक सही होगा। यह तो किसी कमरे में किसी वस्तु को खोजने जैसा ही होगा; मानो कोई व्यक्ति मेज़ की दराज खोलता है और वहाँ उस वस्तु को नहीं पाता; उस दराज को बंद करने के बाद वह फिर उसे दुबारा खोलता है कि कहीं अब वह वस्तु वहीं तो नहीं है, और बारम्बार यही करता रहता है। उसने वस्तुओं को खोजना सीखा ही नहीं है। इसी प्रकार इस विद्यार्थी ने भी प्रश्नों को पूछना नहीं सीखा है। उसने ''उस'' खेल को, जिसे हम उसे सिखाने का प्रयत्न कर रहे हैं, नहीं सीखा है।
और विद्यार्थी के द्वारा प्रकृति की नियमवत्ता यानी आगमनात्मक तर्कों के औचित्य पर संदेह करने पर भी यही होगा – अध्यापक को भान होगा कि ऐसे प्रश्नों से तो गाड़ी अटक जाएगी और बात आगे नहीं बढ़ेगी। – और अध्यापक सही होगा। यह तो किसी कमरे में किसी वस्तु को खोजने जैसा ही होगा; मानो कोई व्यक्ति मेज़ की दराज खोलता है और वहाँ उस वस्तु को नहीं पाता; उस दराज को बंद करने के बाद वह फिर उसे दुबारा खोलता है कि कहीं अब वह वस्तु वहीं तो नहीं है, और बारम्बार यही करता रहता है। उसने वस्तुओं को खोजना सीखा ही नहीं है। इसी प्रकार इस विद्यार्थी ने भी प्रश्नों को पूछना नहीं सीखा है। उसने ''उस'' खेल को, जिसे हम उसे सिखाने का प्रयत्न कर रहे हैं, नहीं सीखा है।


{{ParUG|316}} पर इतिहास के अपने पाठ को रोककर पृथ्वी के अस्तित्व... पर संशय जताने वाले शिष्य की भी क्या यही स्थिति नहीं होती?
{{ParUG|316}} पर इतिहास के अपने पाठ को रोककर पृथ्वी के अस्तित्व.... पर संशय जताने वाले शिष्य की भी क्या यही स्थिति नहीं होती?


{{ParUG|317}} इस संशय का हमारे खेल से सम्बन्धित संशयों से कोई सरोकार नहीं है। (किन्तु हमने इस खेल को भी तो नहीं ''चुना'' है!)
{{ParUG|317}} इस संशय का हमारे खेल से सम्बन्धित संशयों से कोई सरोकार नहीं है। (किन्तु हमने इस खेल को भी तो नहीं ''चुना'' है!)
Line 784: Line 784:
{{ParUG|320}} यहाँ याद रहे कि ‘प्रतिज्ञप्ति’ का प्रत्यय स्वयं ही सुस्पष्ट प्रत्यय नहीं है।
{{ParUG|320}} यहाँ याद रहे कि ‘प्रतिज्ञप्ति’ का प्रत्यय स्वयं ही सुस्पष्ट प्रत्यय नहीं है।


{{ParUG|321}} क्या मैं यही नहीं कह रहा: किसी भी आनुभविक प्रतिज्ञप्ति को प्राक्कल्पना बनाया जा सकता है – और तब वह विवरण का मानदण्ड बन जाती है। किन्तु मुझे इस पर भी शक है। इस वाक्य में अतिव्याप्ति दोष हैं। हम यही कहना चाहते हैं “किसी भी आनुभविक प्रतिज्ञप्ति को सिद्धान्ततः ... में परिवर्तित किया जा सकता है”, किन्तु यहाँ “सिद्धान्ततः” का क्या अर्थ है? यह तो ''ट्रैक्टेटस'' की याद दिलाता है।
{{ParUG|321}} क्या मैं यही नहीं कह रहा: किसी भी आनुभविक प्रतिज्ञप्ति को प्राक्कल्पना बनाया जा सकता है – और तब वह विवरण का मानदण्ड बन जाती है। किन्तु मुझे इस पर भी शक है। इस वाक्य में अतिव्याप्ति दोष हैं। हम यही कहना चाहते हैं “किसी भी आनुभविक प्रतिज्ञप्ति को सिद्धान्ततः .... में परिवर्तित किया जा सकता है”, किन्तु यहाँ “सिद्धान्ततः” का क्या अर्थ है? यह तो ''ट्रैक्टेटस'' की याद दिलाता है।


{{ParUG|322}} विद्यार्थी द्वारा मनुष्यों की याददाश्त से पूर्व पर्वत के अस्तित्व को अस्वीकार कर देने पर क्या होगा?
{{ParUG|322}} विद्यार्थी द्वारा मनुष्यों की याददाश्त से पूर्व पर्वत के अस्तित्व को अस्वीकार कर देने पर क्या होगा?
Line 806: Line 806:
{{ParUG|329}} “यदि कोई ''इस पर'' सन्देह करे – और “सन्देह” का यहाँ चाहे जो भी अर्थ हो – वह इस खेल को सीख ही नहीं पाएगा।
{{ParUG|329}} “यदि कोई ''इस पर'' सन्देह करे – और “सन्देह” का यहाँ चाहे जो भी अर्थ हो – वह इस खेल को सीख ही नहीं पाएगा।


{{ParUG|330}} अतः यहाँ “मैं जानता हूँ...” वाक्य किन्हीं विशिष्ट बातों पर विश्वास करने की तत्परता को व्यक्त करता है।
{{ParUG|330}} अतः यहाँ “मैं जानता हूँ....” वाक्य किन्हीं विशिष्ट बातों पर विश्वास करने की तत्परता को व्यक्त करता है।


13.3.
13.3.
Line 908: Line 908:
{{ParUG|369}} यदि मैं अपने हाथ के अस्तित्व पर संशय करूँ तो मैं “हाथ” शब्द के अर्थ पर संशय करने से कैसे बच सकता हूँ? यानी, इतना ''ज्ञान'' तो मुझे है ही।
{{ParUG|369}} यदि मैं अपने हाथ के अस्तित्व पर संशय करूँ तो मैं “हाथ” शब्द के अर्थ पर संशय करने से कैसे बच सकता हूँ? यानी, इतना ''ज्ञान'' तो मुझे है ही।


{{ParUG|370}} बेहतर होगा: मैं अपने वाक्य में ‘हाथ’ या अन्य शब्दों का सहज प्रयोग करता हूँ और उनके अर्थ पर संशय करना रसातल में जाना है – असंदिग्धता भाषा-खेल का सार तत्त्व है, और” मैं कैसे जानता हूँ...” जैसे प्रश्न भाषा-खेल से हमें बहिष्कृत कर देते हैं, या फिर उन खेलों को ही समाप्त कर देते हैं।
{{ParUG|370}} बेहतर होगा: मैं अपने वाक्य में ‘हाथ’ या अन्य शब्दों का सहज प्रयोग करता हूँ और उनके अर्थ पर संशय करना रसातल में जाना है – असंदिग्धता भाषा-खेल का सार तत्त्व है, और” मैं कैसे जानता हूँ....” जैसे प्रश्न भाषा-खेल से हमें बहिष्कृत कर देते हैं, या फिर उन खेलों को ही समाप्त कर देते हैं।


{{ParUG|371}} “मैं जानता हूँ कि यह एक हाथ है” क्या इसका मूअर के अनुसार यही या इस जैसा ही अर्थ नहीं है: हाथ के अस्तित्व पर सन्देह न करने वाले भाषा-खेलों में मैं ऐसा कह सकता हूँ, “मेरे इस हाथ में पीड़ा हो रही है” अथवा “यह हाथ अन्य हाथ से कमजोर है” अथवा “एक बार मेरा यह हाथ टूट गया था” इत्यादि।
{{ParUG|371}} “मैं जानता हूँ कि यह एक हाथ है” क्या इसका मूअर के अनुसार यही या इस जैसा ही अर्थ नहीं है: हाथ के अस्तित्व पर सन्देह न करने वाले भाषा-खेलों में मैं ऐसा कह सकता हूँ, “मेरे इस हाथ में पीड़ा हो रही है” अथवा “यह हाथ अन्य हाथ से कमजोर है” अथवा “एक बार मेरा यह हाथ टूट गया था” इत्यादि।
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{{ParUG|383}} “मैं स्वप्न ले रहा हूँ” इसलिए अर्थहीन है क्योंकि: स्वप्नावस्था में की गई टिप्पणी भी तो स्वप्न ही है – और वस्तुतः इन शब्दों के सार्थक होने की बात भी स्वप्न ही है।
{{ParUG|383}} “मैं स्वप्न ले रहा हूँ” इसलिए अर्थहीन है क्योंकि: स्वप्नावस्था में की गई टिप्पणी भी तो स्वप्न ही है – और वस्तुतः इन शब्दों के सार्थक होने की बात भी स्वप्न ही है।


{{ParUG|384}} “संसार की कोई भी बात...” यह किस प्रकार का वाक्य है?
{{ParUG|384}} “संसार की कोई भी बात....” यह किस प्रकार का वाक्य है?


{{ParUG|385}} इसका आकार भावी कथन का है, किन्तु (स्पष्टतः) यह अनुभव पर आधारित नहीं है।
{{ParUG|385}} इसका आकार भावी कथन का है, किन्तु (स्पष्टतः) यह अनुभव पर आधारित नहीं है।


{{ParUG|386}} मूअर के साथ जो भी यह कहता है कि वह जानता है कि ऐसा, ऐसा और ऐसा है... – वह अपनी निश्चितता की कोटि प्रस्तुत करता है। और यह महत्त्वपूर्ण है कि उस कोटि का अधिकतम महत्त्व है।
{{ParUG|386}} मूअर के साथ जो भी यह कहता है कि वह जानता है कि ऐसा, ऐसा और ऐसा है.... – वह अपनी निश्चितता की कोटि प्रस्तुत करता है। और यह महत्त्वपूर्ण है कि उस कोटि का अधिकतम महत्त्व है।


{{ParUG|387}} कोई मुझसे पूछ सकता है: “आप कितनी निश्चितता से कह सकते हैं कि वहाँ एक पेड़ है; कि आपकी जेब में पैसे हैं; कि यह आपका पाँव है?” और पहले का उत्तर हो सकता है “पक्का नहीं पता”, दूसरे का “लगभग निश्चित हूँ”, और तीसरे का “मैं इस पर सन्देह नहीं कर सकता”। और बिना किसी आधार के भी ये उत्तर सार्थक होंगे। उदाहरणार्थ, मुझे यह कहने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी: “उसके पेड़ होने के बारे में मैं सुनिश्चित नहीं हो सकता क्योंकि मेरी नज़र तेज नहीं है”। मैं कहना चाहता हूँ: विशिष्ट अर्थ की अपेक्षा से ही मूअर का “मैं ''जानता'' हूँ कि वह एक पेड़ है” कथन सार्थक होता है।
{{ParUG|387}} कोई मुझसे पूछ सकता है: “आप कितनी निश्चितता से कह सकते हैं कि वहाँ एक पेड़ है; कि आपकी जेब में पैसे हैं; कि यह आपका पाँव है?” और पहले का उत्तर हो सकता है “पक्का नहीं पता”, दूसरे का “लगभग निश्चित हूँ”, और तीसरे का “मैं इस पर सन्देह नहीं कर सकता”। और बिना किसी आधार के भी ये उत्तर सार्थक होंगे। उदाहरणार्थ, मुझे यह कहने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी: “उसके पेड़ होने के बारे में मैं सुनिश्चित नहीं हो सकता क्योंकि मेरी नज़र तेज नहीं है”। मैं कहना चाहता हूँ: विशिष्ट अर्थ की अपेक्षा से ही मूअर का “मैं ''जानता'' हूँ कि वह एक पेड़ है” कथन सार्थक होता है।
Line 980: Line 980:
{{ParUG|400}} यहाँ मैं हवा में तलवार चला रहा हूँ क्योंकि जो बात मैं कहना चाहता हूँ उसे अभिव्यक्त करने में असमर्थ हूँ।
{{ParUG|400}} यहाँ मैं हवा में तलवार चला रहा हूँ क्योंकि जो बात मैं कहना चाहता हूँ उसे अभिव्यक्त करने में असमर्थ हूँ।


{{ParUG|401}} मैं कहना चाहता हूँ: न केवल तर्कशास्त्रीय अपितु आनुभविक प्रतिज्ञप्तियों के आकार वाली प्रतिज्ञप्तियां भी विचारों (भाषा) का आधार होती हैं। – “मैं जानता हूँ...” इस टिप्पणी का आकार नहीं है। “मैं जानता हूँ...” अभिव्यक्ति मेरी जानकारी को अभिव्यक्त करती है, पर उसका कोई तार्किक महत्त्व नहीं है।
{{ParUG|401}} मैं कहना चाहता हूँ: न केवल तर्कशास्त्रीय अपितु आनुभविक प्रतिज्ञप्तियों के आकार वाली प्रतिज्ञप्तियां भी विचारों (भाषा) का आधार होती हैं। – “मैं जानता हूँ....” इस टिप्पणी का आकार नहीं है। “मैं जानता हूँ....” अभिव्यक्ति मेरी जानकारी को अभिव्यक्त करती है, पर उसका कोई तार्किक महत्त्व नहीं है।


{{ParUG|402}} इस टिप्पणी में “आनुभविक प्रतिज्ञप्तियों के आकार वाली प्रतिज्ञप्तियां” अभिव्यक्ति अपने-आप में बेहूदा है; प्रसंग तो भौतिक वस्तुओं के कथन का है। जैसे किसी प्राक्कल्पना के असिद्ध हो जाने पर किसी अन्य प्रतिज्ञप्ति को आधार बनाया जा सकता है वैसे ही इन प्रतिज्ञप्तियों को आधार के रूप में प्रतिस्थापित नहीं किया जा सकता।
{{ParUG|402}} इस टिप्पणी में “आनुभविक प्रतिज्ञप्तियों के आकार वाली प्रतिज्ञप्तियां” अभिव्यक्ति अपने-आप में बेहूदा है; प्रसंग तो भौतिक वस्तुओं के कथन का है। जैसे किसी प्राक्कल्पना के असिद्ध हो जाने पर किसी अन्य प्रतिज्ञप्ति को आधार बनाया जा सकता है वैसे ही इन प्रतिज्ञप्तियों को आधार के रूप में प्रतिस्थापित नहीं किया जा सकता।


<blockquote>... और विश्वास से लिखें
<blockquote>.... और विश्वास से लिखें


“आरम्भ में तो कर्म ही था।”<ref>देखें गेटे, ''फ़ाउस्ट'' I</ref></blockquote>
“आरम्भ में तो कर्म ही था।”<ref>देखें गेटे, ''फ़ाउस्ट'' I</ref></blockquote>
Line 994: Line 994:
{{ParUG|405}} बहरहाल यहाँ भी कोई गलती है।
{{ParUG|405}} बहरहाल यहाँ भी कोई गलती है।


{{ParUG|406}} साधारण रूप से की गई आकस्मिक टिप्पणी “मैं जानता हूँ कि वह एक...” और दार्शनिक की इसी टिप्पणी के भेद से भी लक्ष्य का पता चलता है।
{{ParUG|406}} साधारण रूप से की गई आकस्मिक टिप्पणी “मैं जानता हूँ कि वह एक....” और दार्शनिक की इसी टिप्पणी के भेद से भी लक्ष्य का पता चलता है।


{{ParUG|407}} क्योंकि मूअर के “मैं जानता हूँ कि वह...” कहने पर मैं उत्तर देता हूँ “आप कुछ भी नहीं ''जानते''!” – पर फिर भी दार्शनिक-प्रवृत्ति से रहित व्यक्ति को मैं यह उत्तर नहीं दूँगा। यानी, मुझे लगता है (ठीक ही?) कि ये दोनों व्यक्ति कोई अलग-अलग बात कहते हैं।
{{ParUG|407}} क्योंकि मूअर के “मैं जानता हूँ कि वह....” कहने पर मैं उत्तर देता हूँ “आप कुछ भी नहीं ''जानते''!” – पर फिर भी दार्शनिक-प्रवृत्ति से रहित व्यक्ति को मैं यह उत्तर नहीं दूँगा। यानी, मुझे लगता है (ठीक ही?) कि ये दोनों व्यक्ति कोई अलग-अलग बात कहते हैं।


{{ParUG|408}} क्योंकि यदि कोई कहता है कि उसे अमुक बात ज्ञात है, और यह उसके दर्शन का एक भाग है – तो इस कथन के त्रुटिपूर्ण होने पर उसका दर्शन असत्य हो जाता है।
{{ParUG|408}} क्योंकि यदि कोई कहता है कि उसे अमुक बात ज्ञात है, और यह उसके दर्शन का एक भाग है – तो इस कथन के त्रुटिपूर्ण होने पर उसका दर्शन असत्य हो जाता है।
Line 1,058: Line 1,058:
22.3.
22.3.


{{ParUG|427}} हमें यह दिखलाने की आवश्यकता है कि “मैं जानता हूँ...” अभिव्यक्ति के कभी भी प्रयोग न किए जाने पर भी व्यक्ति के व्यवहार से हमें तत्सम्बन्धी बात का पता चल ही जाता है।
{{ParUG|427}} हमें यह दिखलाने की आवश्यकता है कि “मैं जानता हूँ....” अभिव्यक्ति के कभी भी प्रयोग न किए जाने पर भी व्यक्ति के व्यवहार से हमें तत्सम्बन्धी बात का पता चल ही जाता है।


{{ParUG|428}} मान लीजिए कि साधारण व्यवहार करने वाला कोई व्यक्ति हमें आश्वासन दे कि उसे ''विश्वास'' है कि उसका अमुक नाम है, उसे ''विश्वास'' है कि वह अपने आस-पास रहने वाले लोगों को पहचानता है, उसे विश्वास है कि हाथों और पैरों को न देखने की स्थिति में भी उसके हाथ-पैर होते हैं, इत्यादि। क्या हम उसे दिखा सकते हैं कि उसके क्रिया-कलाप (और उसके कथन) दर्शाते हैं कि ऐसा नहीं है?
{{ParUG|428}} मान लीजिए कि साधारण व्यवहार करने वाला कोई व्यक्ति हमें आश्वासन दे कि उसे ''विश्वास'' है कि उसका अमुक नाम है, उसे ''विश्वास'' है कि वह अपने आस-पास रहने वाले लोगों को पहचानता है, उसे विश्वास है कि हाथों और पैरों को न देखने की स्थिति में भी उसके हाथ-पैर होते हैं, इत्यादि। क्या हम उसे दिखा सकते हैं कि उसके क्रिया-कलाप (और उसके कथन) दर्शाते हैं कि ऐसा नहीं है?
Line 1,078: Line 1,078:
मेरे ऐसे व्यवहार और शब्दों का कोई अन्य व्यक्ति क्या अर्थ लगाता है? क्या इतना ही नहीं कि मैं अपने आधारों के बारे में आश्वस्त हूँ? – मैं यहाँ कई सप्ताहों से रह रहा हूँ और प्रतिदिन कई बार ऊपर-नीचे आता-जाता रहता हूँ, इस तथ्य से वह यह नहीं जान जाता कि मुझे ''पता'' है कि मेरा कमरा कहाँ है। – “मैं जानता हूँ” कहकर मैं उसे तभी आश्वस्त करता हूँ जब उसे पहले से ही उन बातों के बारे में पता ''नही'' होता जिनसे अनिवार्यतः यह निष्कर्ष निकलता है कि मुझे पता है।
मेरे ऐसे व्यवहार और शब्दों का कोई अन्य व्यक्ति क्या अर्थ लगाता है? क्या इतना ही नहीं कि मैं अपने आधारों के बारे में आश्वस्त हूँ? – मैं यहाँ कई सप्ताहों से रह रहा हूँ और प्रतिदिन कई बार ऊपर-नीचे आता-जाता रहता हूँ, इस तथ्य से वह यह नहीं जान जाता कि मुझे ''पता'' है कि मेरा कमरा कहाँ है। – “मैं जानता हूँ” कहकर मैं उसे तभी आश्वस्त करता हूँ जब उसे पहले से ही उन बातों के बारे में पता ''नही'' होता जिनसे अनिवार्यतः यह निष्कर्ष निकलता है कि मुझे पता है।


{{ParUG|432}} “मैं जानता हूँ...” कथन का अर्थ मेरे द्वारा ‘जानने’ के अन्य प्रमाणों से संबद्ध होने पर ही होता है।
{{ParUG|432}} “मैं जानता हूँ....” कथन का अर्थ मेरे द्वारा ‘जानने’ के अन्य प्रमाणों से संबद्ध होने पर ही होता है।


{{ParUG|433}} अत:, जब मैं किसी को कहता हूँ कि “मैं ''जानता'' हूँ कि वह एक पेड़ है” तो यह मेरे द्वारा उसे यह कहने जैसा होता है कि “वह एक पेड़ है; आप इस बात पर पूरी तरह विश्वास कर सकते हैं; इसमें कोई संदेह नहीं है”। और कोई दार्शनिक इस कथन का प्रयोग केवल यह प्रदर्शित करने के लिए करता है कि बातचीत में वस्तुतः ऐसा प्रयोग होता है। किन्तु, यदि उसका प्रयोग हिन्दी-व्याकरण पर टिप्पणी नहीं होती, तो उसे इस अभिव्यक्ति के कार्य-व्यापार का ब्योरा देना होगा।
{{ParUG|433}} अत:, जब मैं किसी को कहता हूँ कि “मैं ''जानता'' हूँ कि वह एक पेड़ है” तो यह मेरे द्वारा उसे यह कहने जैसा होता है कि “वह एक पेड़ है; आप इस बात पर पूरी तरह विश्वास कर सकते हैं; इसमें कोई संदेह नहीं है”। और कोई दार्शनिक इस कथन का प्रयोग केवल यह प्रदर्शित करने के लिए करता है कि बातचीत में वस्तुतः ऐसा प्रयोग होता है। किन्तु, यदि उसका प्रयोग हिन्दी-व्याकरण पर टिप्पणी नहीं होती, तो उसे इस अभिव्यक्ति के कार्य-व्यापार का ब्योरा देना होगा।
Line 1,098: Line 1,098:
{{ParUG|440}} यहाँ व्यक्तिगत बात न होकर कोई सार्वभौमिक बात है।
{{ParUG|440}} यहाँ व्यक्तिगत बात न होकर कोई सार्वभौमिक बात है।


{{ParUG|441}} न्यायालय में किसी साक्षी के केवल “मैं जानता हूँ...” कहने से कोई भी आश्वस्त नहीं होता। यह प्रमाणित करना आवश्यक है कि वह जानने की स्थिति में था।
{{ParUG|441}} न्यायालय में किसी साक्षी के केवल “मैं जानता हूँ....” कहने से कोई भी आश्वस्त नहीं होता। यह प्रमाणित करना आवश्यक है कि वह जानने की स्थिति में था।


अपने ही हाथ को देखते हुए “मैं जानता हूँ कि यह एक हाथ है” यह आश्वासन भी तब तक विश्वसनीय नहीं होता जब तक हमें उन परिस्थितियों का पता न हो जिनमें ऐसा कहा गया हो। ऐसी जानकारी होने पर ही यह निश्चय होता है कि वक्ता इस लिहाज़ से सामान्य है।
अपने ही हाथ को देखते हुए “मैं जानता हूँ कि यह एक हाथ है” यह आश्वासन भी तब तक विश्वसनीय नहीं होता जब तक हमें उन परिस्थितियों का पता न हो जिनमें ऐसा कहा गया हो। ऐसी जानकारी होने पर ही यह निश्चय होता है कि वक्ता इस लिहाज़ से सामान्य है।
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{{ParUG|442}} क्या यह सम्भव नहीं कि मैंने ऐसा ''मान लिया'' है कि मैं किसी बात को जानता हूँ?
{{ParUG|442}} क्या यह सम्भव नहीं कि मैंने ऐसा ''मान लिया'' है कि मैं किसी बात को जानता हूँ?


{{ParUG|443}} मान लीजिए कि किसी भाषा में हमारी भाषा के “जानने” शब्द के अनुरूप कोई शब्द ही न हो। – लोग केवल टिप्पणी ही करते हों। (“वह एक पेड़ है”, इत्यादि)। उनको अपनी त्रुटि की सम्भावना का ज्ञान स्वाभाविक ही है। इसलिए वे वाक्यों के साथ ऐसे संकेत जोड़ देते हैं जिनसे यह पता चलता है कि उन्हें उस वाक्य के गलत होने की कितनी संभावना प्रतीत होती है – या फिर, मैं कह सकता हूँ कि इस वाक्य के गलत होने की कितनी संभावना है? बाद के कथन को विशिष्ट परिस्थितियों का विवरण देकर भी इंगित किया जा सकता है। उदाहरणार्थ, “तब अ ने ब से कहा  ‘...’। मैं उनके समीप ही खड़ा था और मेरी श्रवण-शक्ति भी ठीक है”, अथवा “कल अ अमुक स्थान पर था। मैंने उसे दूर से देखा था। मेरी दृष्टि बहुत अच्छी नहीं है”, अथवा “वहाँ एक पेड़ है: मैं उसे साफ-साफ देख सकता हूँ और मैंने उसे पहले भी अनेक बार देखा है”।
{{ParUG|443}} मान लीजिए कि किसी भाषा में हमारी भाषा के “जानने” शब्द के अनुरूप कोई शब्द ही न हो। – लोग केवल टिप्पणी ही करते हों। (“वह एक पेड़ है”, इत्यादि)। उनको अपनी त्रुटि की सम्भावना का ज्ञान स्वाभाविक ही है। इसलिए वे वाक्यों के साथ ऐसे संकेत जोड़ देते हैं जिनसे यह पता चलता है कि उन्हें उस वाक्य के गलत होने की कितनी संभावना प्रतीत होती है – या फिर, मैं कह सकता हूँ कि इस वाक्य के गलत होने की कितनी संभावना है? बाद के कथन को विशिष्ट परिस्थितियों का विवरण देकर भी इंगित किया जा सकता है। उदाहरणार्थ, “तब अ ने ब से कहा  ‘....’। मैं उनके समीप ही खड़ा था और मेरी श्रवण-शक्ति भी ठीक है”, अथवा “कल अ अमुक स्थान पर था। मैंने उसे दूर से देखा था। मेरी दृष्टि बहुत अच्छी नहीं है”, अथवा “वहाँ एक पेड़ है: मैं उसे साफ-साफ देख सकता हूँ और मैंने उसे पहले भी अनेक बार देखा है”।


{{ParUG|444}} “गाड़ी दो बजे छूटती है। पक्की जानकारी के लिए एक बार और पता कर लो”, अथवा “गाड़ी दो बजे छूटती है। मैंने नवीनतम समय-सारिणी में अभी-अभी देखा है”। यह भी कहा जा सकता है “ऐसी बातों के लिए मुझ पर भरोसा किया जा सकता है”। ऐसे कथनों के लाभ स्पष्ट हैं।
{{ParUG|444}} “गाड़ी दो बजे छूटती है। पक्की जानकारी के लिए एक बार और पता कर लो”, अथवा “गाड़ी दो बजे छूटती है। मैंने नवीनतम समय-सारिणी में अभी-अभी देखा है”। यह भी कहा जा सकता है “ऐसी बातों के लिए मुझ पर भरोसा किया जा सकता है”। ऐसे कथनों के लाभ स्पष्ट हैं।
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{{ParUG|449}} कोई बात तो हमें आधार के रूप में सिखाई जानी चाहिए।
{{ParUG|449}} कोई बात तो हमें आधार के रूप में सिखाई जानी चाहिए।


{{ParUG|450}} मैं कहना चाहता हूँ: हमें इस तरह सिखाया जाता है “वह एक जामुनी वस्तु है”, “वह एक मेज है”। यह सम्भव है कि शिशु ने प्रथम बार ही ‘जामुनी’ शब्द को “संभवत: वह एक जामुनी वस्तु है” वाक्य में सुना हो किन्तु फिर भी वह “जामुनी क्या होता है?” प्रश्न को पूछ सकता है। शायद उसे किसी चित्र को दिखा कर इसका उत्तर दिया जा सकता है। यदि उसे चित्र दिखाते हुए ही हम कहें “वह एक...” पर अन्य स्थितियों में हम “संभवत: वह एक...” कहने के सिवाय कुछ भी न कहें, तो क्या होगा – इसके व्यावहारिक परिणाम क्या होंगे?
{{ParUG|450}} मैं कहना चाहता हूँ: हमें इस तरह सिखाया जाता है “वह एक जामुनी वस्तु है”, “वह एक मेज है”। यह सम्भव है कि शिशु ने प्रथम बार ही ‘जामुनी’ शब्द को “संभवत: वह एक जामुनी वस्तु है” वाक्य में सुना हो किन्तु फिर भी वह “जामुनी क्या होता है?” प्रश्न को पूछ सकता है। शायद उसे किसी चित्र को दिखा कर इसका उत्तर दिया जा सकता है। यदि उसे चित्र दिखाते हुए ही हम कहें “वह एक....” पर अन्य स्थितियों में हम “संभवत: वह एक....” कहने के सिवाय कुछ भी न कहें, तो क्या होगा – इसके व्यावहारिक परिणाम क्या होंगे?


सभी विषयों पर संशय करना कोई संशय नहीं होता।
सभी विषयों पर संशय करना कोई संशय नहीं होता।
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{{ParUG|451}} मूअर के विरोध में मेरी यह आपत्ति – “वह एक पेड़ है” इस एकल वाक्य का अर्थ अनिश्चित है क्योंकि जिसे पेड़ कहा जा रहा है उसके बारे में “''वह''” कहना ही अनिश्चित है – उपयोगी नहीं है क्योंकि इसके अर्थ को उदाहरणार्थ यह कहकर अधिक सुनिश्चित किया जा सकता है: पेड़ के समान दिखाई देने वाली वह वस्तु किसी पेड़ की कृत्रिम नकल न होकर वास्तविक पेड़ ही है।”
{{ParUG|451}} मूअर के विरोध में मेरी यह आपत्ति – “वह एक पेड़ है” इस एकल वाक्य का अर्थ अनिश्चित है क्योंकि जिसे पेड़ कहा जा रहा है उसके बारे में “''वह''” कहना ही अनिश्चित है – उपयोगी नहीं है क्योंकि इसके अर्थ को उदाहरणार्थ यह कहकर अधिक सुनिश्चित किया जा सकता है: पेड़ के समान दिखाई देने वाली वह वस्तु किसी पेड़ की कृत्रिम नकल न होकर वास्तविक पेड़ ही है।”


{{ParUG|452}} उसके वास्तविक पेड़ होने या फिर होगा... होने पर शक करना समुचित नहीं।
{{ParUG|452}} उसके वास्तविक पेड़ होने या फिर होगा.... होने पर शक करना समुचित नहीं।


मेरा इसे संशयातीत समझना महत्त्वपूर्ण नहीं है। किसी संशय के समुचित न होने का पता केवल मेरी जानकारी से तो नहीं चलता। अतः कोई ऐसा नियम होना चाहिए जिससे यह पता चले कि इस पर संशय करना समुचित नहीं है। किन्तु ऐसा नियम भी तो नहीं है।
मेरा इसे संशयातीत समझना महत्त्वपूर्ण नहीं है। किसी संशय के समुचित न होने का पता केवल मेरी जानकारी से तो नहीं चलता। अतः कोई ऐसा नियम होना चाहिए जिससे यह पता चले कि इस पर संशय करना समुचित नहीं है। किन्तु ऐसा नियम भी तो नहीं है।
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{{ParUG|459}} यदि दुकानदार बिना किसी कारण केवल प्रत्येक वस्तु के विषय में निश्चित होने के लिए अपनी दुकान में रखे प्रत्येक सेब का निरीक्षण करना चाहे तो फिर वह अपने निरीक्षण का ही निरीक्षण क्यों न करे? पर क्या अब हम विश्वास के बारे में बात कर सकते हैं (मेरा आशय ‘धार्मिक विश्वास’ जैसे विश्वास से है न कि अटकलबाजी से)? मनोवैज्ञानिक पदावली तो सिर्फ हमें वास्तविक मुद्दे से दूर ले जाती है।
{{ParUG|459}} यदि दुकानदार बिना किसी कारण केवल प्रत्येक वस्तु के विषय में निश्चित होने के लिए अपनी दुकान में रखे प्रत्येक सेब का निरीक्षण करना चाहे तो फिर वह अपने निरीक्षण का ही निरीक्षण क्यों न करे? पर क्या अब हम विश्वास के बारे में बात कर सकते हैं (मेरा आशय ‘धार्मिक विश्वास’ जैसे विश्वास से है न कि अटकलबाजी से)? मनोवैज्ञानिक पदावली तो सिर्फ हमें वास्तविक मुद्दे से दूर ले जाती है।


{{ParUG|460}} मैं चिकित्सक के पास जाकर उन्हें अपना हाथ दिखलाते हुए कहता हूँ “यह एक हाथ है न कि...; मुझे इसमें चोट लगती है, इत्यादि, इत्यादि।” क्या मैं उन्हें कोई अनावश्यक जानकारी दे रहा हूँ? उदाहरणार्थ, क्या हम यह नहीं कह सकते: मान लीजिए कि “यह एक हाथ है” ये शब्द कोई जानकारी देते तो भी उसकी इस जानकारी की समझ पर आप कैसे भरोसा करते? वस्तुत:, ‘इसके हाथ होने’ पर यदि संदेह किया जा सकता है तो चिकित्सक को जानकारी देने वाले मेरे जैसे व्यक्ति के मनुष्य होने या न होने पर भी संदेह क्यों नहीं किया जा सकता? – किन्तु दूसरी ओर हम ऐसी स्थितियों की कल्पना भी कर सकते हैं – चाहे वे विरल ही क्यों न हों – जिनमें यह कथन अनावश्यक नहीं होता, या फिर अनावश्यक तो होता है किन्तु बेतुका नहीं होता।
{{ParUG|460}} मैं चिकित्सक के पास जाकर उन्हें अपना हाथ दिखलाते हुए कहता हूँ “यह एक हाथ है न कि....; मुझे इसमें चोट लगती है, इत्यादि, इत्यादि।” क्या मैं उन्हें कोई अनावश्यक जानकारी दे रहा हूँ? उदाहरणार्थ, क्या हम यह नहीं कह सकते: मान लीजिए कि “यह एक हाथ है” ये शब्द कोई जानकारी देते तो भी उसकी इस जानकारी की समझ पर आप कैसे भरोसा करते? वस्तुत:, ‘इसके हाथ होने’ पर यदि संदेह किया जा सकता है तो चिकित्सक को जानकारी देने वाले मेरे जैसे व्यक्ति के मनुष्य होने या न होने पर भी संदेह क्यों नहीं किया जा सकता? – किन्तु दूसरी ओर हम ऐसी स्थितियों की कल्पना भी कर सकते हैं – चाहे वे विरल ही क्यों न हों – जिनमें यह कथन अनावश्यक नहीं होता, या फिर अनावश्यक तो होता है किन्तु बेतुका नहीं होता।


{{ParUG|461}} मान लीजिए कि मैं एक चिकित्सक हूँ और कोई मरीज़ मेरे पास आकर अपना हाथ दिखाते हुए कहता है: “हाथ जैसी दिखने वाली यह वस्तु कोई उत्कृष्ट नकल न होकर – वास्तव में एक हाथ है” और फिर अपनी चोट के बारे में बताए – तो क्या मुझे इसको जानकारी के रूप में लेना चाहिए, चाहे वह अनावश्यक ही हो? क्या मुझे इसे बकवास नहीं मानना चाहिए चाहे यह जानकारी-जैसी ही क्यों न हो? क्योंकि मैं कहूँगा कि यदि जानकारी सार्थक होती तो उसे अपने कथन पर भरोसा कैसे होता? इसे जानकारी बनाने वाली पृष्ठभूमि का अभाव है।
{{ParUG|461}} मान लीजिए कि मैं एक चिकित्सक हूँ और कोई मरीज़ मेरे पास आकर अपना हाथ दिखाते हुए कहता है: “हाथ जैसी दिखने वाली यह वस्तु कोई उत्कृष्ट नकल न होकर – वास्तव में एक हाथ है” और फिर अपनी चोट के बारे में बताए – तो क्या मुझे इसको जानकारी के रूप में लेना चाहिए, चाहे वह अनावश्यक ही हो? क्या मुझे इसे बकवास नहीं मानना चाहिए चाहे यह जानकारी-जैसी ही क्यों न हो? क्योंकि मैं कहूँगा कि यदि जानकारी सार्थक होती तो उसे अपने कथन पर भरोसा कैसे होता? इसे जानकारी बनाने वाली पृष्ठभूमि का अभाव है।
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मुझे ये शब्द वार्तालाप के मध्य “नमस्ते” कहने जैसे लगते हैं।
मुझे ये शब्द वार्तालाप के मध्य “नमस्ते” कहने जैसे लगते हैं।


{{ParUG|465}} “मैं जानता हूँ कि वह एक पेड़ है” यह कहने के बजाय यदि मैं कहूँ “आजकल वे जानते हैं कि कीड़ों की... प्रजातियां हैं” तो क्या होगा? यदि कोई व्यक्ति बगैर संदर्भ के अचानक उस वाक्य का उच्चारण कर बैठे तो हम सोचेंगे: वह इस दौरान कुछ सोच रहा था और अब अपनी विचार-श्रृंखला में से किसी एक वाक्य को बोल रहा है। या फिर: वह लोकातीत स्थिति में है और बिना यह जाने कि वह क्या बोल रहा है, कुछ बोल रहा है।
{{ParUG|465}} “मैं जानता हूँ कि वह एक पेड़ है” यह कहने के बजाय यदि मैं कहूँ “आजकल वे जानते हैं कि कीड़ों की.... प्रजातियां हैं” तो क्या होगा? यदि कोई व्यक्ति बगैर संदर्भ के अचानक उस वाक्य का उच्चारण कर बैठे तो हम सोचेंगे: वह इस दौरान कुछ सोच रहा था और अब अपनी विचार-श्रृंखला में से किसी एक वाक्य को बोल रहा है। या फिर: वह लोकातीत स्थिति में है और बिना यह जाने कि वह क्या बोल रहा है, कुछ बोल रहा है।


{{ParUG|466}} अत: मुझे प्रतीत होता है कि मैं किसी बात को सदा से जानता हूँ किन्तु फिर भी इस सच्चाई को कहने का कोई मतलब नहीं है।
{{ParUG|466}} अत: मुझे प्रतीत होता है कि मैं किसी बात को सदा से जानता हूँ किन्तु फिर भी इस सच्चाई को कहने का कोई मतलब नहीं है।
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{{ParUG|489}} क्योंकि “मेरा विश्वास है कि आपको ऐसा लगता है कि आप जानते हैं” ऐसा कहने वाले व्यक्ति को क्या उत्तर दिया जाएगा?
{{ParUG|489}} क्योंकि “मेरा विश्वास है कि आपको ऐसा लगता है कि आप जानते हैं” ऐसा कहने वाले व्यक्ति को क्या उत्तर दिया जाएगा?


{{ParUG|490}} जब मैं पूछता हूँ “क्या मैं जानता हूँ या फिर क्या यह मेरा विश्वास ही है कि मेरा नाम...?” तो आत्म-विश्लेषण से कोई लाभ नहीं होता।
{{ParUG|490}} जब मैं पूछता हूँ “क्या मैं जानता हूँ या फिर क्या यह मेरा विश्वास ही है कि मेरा नाम....?” तो आत्म-विश्लेषण से कोई लाभ नहीं होता।


किन्तु मैं कह सकता हूँ: मुझे कभी तनिक भी संदेह नहीं हुआ कि मेरा अमुक नाम है, अपितु इस पर संदेह करने पर तो मैं कहीं का नहीं रहूँगा।
किन्तु मैं कह सकता हूँ: मुझे कभी तनिक भी संदेह नहीं हुआ कि मेरा अमुक नाम है, अपितु इस पर संदेह करने पर तो मैं कहीं का नहीं रहूँगा।
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10.4.
10.4.


{{ParUG|491}} “क्या मैं जानता हूँ या फिर क्या यह मेरा विश्वास ही है कि मेरा नाम लु.वि. है?” – बेशक, यदि यह प्रश्न होता “क्या मुझे निश्चय है या फिर मैं केवल अनुमान लगा रहा हूँ कि...?” तो मेरे उत्तर पर भरोसा किया जा सकता था।
{{ParUG|491}} “क्या मैं जानता हूँ या फिर क्या यह मेरा विश्वास ही है कि मेरा नाम लु.वि. है?” – बेशक, यदि यह प्रश्न होता “क्या मुझे निश्चय है या फिर मैं केवल अनुमान लगा रहा हूँ कि....?” तो मेरे उत्तर पर भरोसा किया जा सकता था।


{{ParUG|492}} “क्या मैं जानता हूँ या फिर क्या यह मेरा विश्वास ही है...?” इसकी यह भी अभिव्यक्ति हो सकती है: जिस बात को हम अभी तक संशयातीत समझते आये हैं यदि वही निर्मूल ''लगने लगे'' तो क्या होगा? तब क्या मेरी वही प्रतिक्रिया होगी जो किसी मान्यता के निर्मूल सिद्ध होने पर होती है? अथवा क्या इससे मेरे समस्त निर्णयों का आधार ही समाप्त हो जायेगा? – बेशक मेरा मन्तव्य कोई ''भविष्यवाणी'' करना नहीं है।
{{ParUG|492}} “क्या मैं जानता हूँ या फिर क्या यह मेरा विश्वास ही है....?” इसकी यह भी अभिव्यक्ति हो सकती है: जिस बात को हम अभी तक संशयातीत समझते आये हैं यदि वही निर्मूल ''लगने लगे'' तो क्या होगा? तब क्या मेरी वही प्रतिक्रिया होगी जो किसी मान्यता के निर्मूल सिद्ध होने पर होती है? अथवा क्या इससे मेरे समस्त निर्णयों का आधार ही समाप्त हो जायेगा? – बेशक मेरा मन्तव्य कोई ''भविष्यवाणी'' करना नहीं है।


क्या मैं यही कहूँगा कि “मुझे कभी ऐसा सोचना ही नहीं चाहिए था” – या फिर मुझे अपने निर्णय को संशोधित करने से इन्कार कर देना होगा (चाहिए) –  क्योंकि ऐसे ‘संशोधन’ से सभी मानदण्ड लुप्त हो जाएंगे?
क्या मैं यही कहूँगा कि “मुझे कभी ऐसा सोचना ही नहीं चाहिए था” – या फिर मुझे अपने निर्णय को संशोधित करने से इन्कार कर देना होगा (चाहिए) –  क्योंकि ऐसे ‘संशोधन’ से सभी मानदण्ड लुप्त हो जाएंगे?
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{{ParUG|500}} किन्तु यह कथन भी मुझे निरर्थक ही लगेगा कि “मैं जानता हूँ कि आगमनात्मक सिद्धान्त सत्य है”।
{{ParUG|500}} किन्तु यह कथन भी मुझे निरर्थक ही लगेगा कि “मैं जानता हूँ कि आगमनात्मक सिद्धान्त सत्य है”।


ऐसे कथन के न्यायालय में कहे जाने की कल्पना कीजिए! “मेरा विश्वास है कि “... सिद्धान्त...” कहना अधिक उचित होगा। यहाँ ‘विश्वास’ का ''अनुमान'' लगाने से कोई सरोकार नहीं है।
ऐसे कथन के न्यायालय में कहे जाने की कल्पना कीजिए! “मेरा विश्वास है कि “.... सिद्धान्त....” कहना अधिक उचित होगा। यहाँ ‘विश्वास’ का ''अनुमान'' लगाने से कोई सरोकार नहीं है।


{{ParUG|501}} क्या अन्ततोगत्वा मैं यही नहीं कह रहा हूँ कि तर्कशास्त्र वर्णन से परे है? भाषा प्रयोग से आपको इसका पता चलेगा।
{{ParUG|501}} क्या अन्ततोगत्वा मैं यही नहीं कह रहा हूँ कि तर्कशास्त्र वर्णन से परे है? भाषा प्रयोग से आपको इसका पता चलेगा।
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{{ParUG|527}} इस रंग को “लाल” कहने वाले हिन्दी-भाषी को ‘इस बात का निश्चय नहीं है कि उस रंग को हिन्दी में “लाल” कहते हैं’।
{{ParUG|527}} इस रंग को “लाल” कहने वाले हिन्दी-भाषी को ‘इस बात का निश्चय नहीं है कि उस रंग को हिन्दी में “लाल” कहते हैं’।


इस शब्द-प्रयोग में कुशल शिशु को ‘इस बात का निश्चय’ नहीं होता ‘कि उसकी भाषा में यह रंग... कहलाता है’। न ही यह कहा जा सकता है कि बोलना सीखते समय ही वह यह भी सीख जाता है कि उस रंग को हिन्दी में यह कहते हैं; न ही यह कहा जा सकता है: शब्द के प्रयोग को सीखने पर वह इस बात को ''जान जाता'' है।
इस शब्द-प्रयोग में कुशल शिशु को ‘इस बात का निश्चय’ नहीं होता ‘कि उसकी भाषा में यह रंग.... कहलाता है’। न ही यह कहा जा सकता है कि बोलना सीखते समय ही वह यह भी सीख जाता है कि उस रंग को हिन्दी में यह कहते हैं; न ही यह कहा जा सकता है: शब्द के प्रयोग को सीखने पर वह इस बात को ''जान जाता'' है।


{{ParUG|528}} तिस पर भी: यह पूछने पर कि इस रंग को हिन्दी भाषा में क्या कहते हैं, यदि मेरे जवाब देने पर वह पूछता है “क्या आप आश्वस्त हैं?” – तो मैं उसे उत्तर देता हूँ “मैं इसे ''जानता'' हूँ; हिन्दी मेरी मातृ-भाषा है”।
{{ParUG|528}} तिस पर भी: यह पूछने पर कि इस रंग को हिन्दी भाषा में क्या कहते हैं, यदि मेरे जवाब देने पर वह पूछता है “क्या आप आश्वस्त हैं?” – तो मैं उसे उत्तर देता हूँ “मैं इसे ''जानता'' हूँ; हिन्दी मेरी मातृ-भाषा है”।
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{{ParUG|529}} उदाहरणार्थ, एक शिशु किसी अन्य शिशु के बारे में या फिर अपने ही बारे में कहेगा कि उसे पहले से ही ज्ञात है कि अमुक वस्तु का क्या अभिधान है।
{{ParUG|529}} उदाहरणार्थ, एक शिशु किसी अन्य शिशु के बारे में या फिर अपने ही बारे में कहेगा कि उसे पहले से ही ज्ञात है कि अमुक वस्तु का क्या अभिधान है।


{{ParUG|530}} मैं किसी को (उदाहरणार्थ, उसे हिन्दी सिखाते समय) कह सकता हूँ कि “इस रंग को हिन्दी में ‘लाल’ कहते हैं”। इस स्थिति में मुझे यह नहीं कहना चाहिए कि “मैं जानता हूँ कि इस रंग को...” – संभवतः, मैं ऐसा तभी कहूँगा जब मैंने इसे हाल ही में सीखा हो, या फिर मैं इसे तब कहूँगा जब मुझे उसकी किसी ऐसे रंग के नाम से तुलना करनी हो जिससे मैं अपरिचित हूँ।
{{ParUG|530}} मैं किसी को (उदाहरणार्थ, उसे हिन्दी सिखाते समय) कह सकता हूँ कि “इस रंग को हिन्दी में ‘लाल’ कहते हैं”। इस स्थिति में मुझे यह नहीं कहना चाहिए कि “मैं जानता हूँ कि इस रंग को....” – संभवतः, मैं ऐसा तभी कहूँगा जब मैंने इसे हाल ही में सीखा हो, या फिर मैं इसे तब कहूँगा जब मुझे उसकी किसी ऐसे रंग के नाम से तुलना करनी हो जिससे मैं अपरिचित हूँ।


{{ParUG|531}} किन्तु, क्या मेरी वर्तमान स्थिति का उचित विवरण निम्नलिखित नही होगा: मैं ''जानता'' हूँ कि इस रंग को हिन्दी में क्या कहते हैं? और यदि यह ठीक है तो मैं अपनी स्थिति का वर्णन उसके अनुरूप “मैं जानता हूँ इत्यादि” शब्दों द्वारा क्यों नहीं दे सकता?
{{ParUG|531}} किन्तु, क्या मेरी वर्तमान स्थिति का उचित विवरण निम्नलिखित नही होगा: मैं ''जानता'' हूँ कि इस रंग को हिन्दी में क्या कहते हैं? और यदि यह ठीक है तो मैं अपनी स्थिति का वर्णन उसके अनुरूप “मैं जानता हूँ इत्यादि” शब्दों द्वारा क्यों नहीं दे सकता?
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{{ParUG|562}} किसी ऐसी भाषा की कल्पना तो करनी ही होगी जिसमें ‘ज्ञान’ का ''हमारा'' प्रत्यय न हो।
{{ParUG|562}} किसी ऐसी भाषा की कल्पना तो करनी ही होगी जिसमें ‘ज्ञान’ का ''हमारा'' प्रत्यय न हो।


{{ParUG|563}} ठोस आधारों के अभाव में भी हम कहते हैं “मैं जानता हूँ कि वह वेदना-ग्रस्त है”। – क्या यह ऐसा कहना है “मुझे निश्चय है कि वह...”? – नहीं। “मुझे निश्चय है” कहने से आपको मेरी मनोगत निश्चयात्मकता का पता चलता है। “मैं जानता हूँ” कहने का अभिप्राय यह है कि जानकार मैं और गैरजानकार अन्य व्यक्ति में (संभवत: अनुभव की कोटि में भेद पर आधारित) भिन्नता का कारण जानकारी का भेद है।
{{ParUG|563}} ठोस आधारों के अभाव में भी हम कहते हैं “मैं जानता हूँ कि वह वेदना-ग्रस्त है”। – क्या यह ऐसा कहना है “मुझे निश्चय है कि वह....”? – नहीं। “मुझे निश्चय है” कहने से आपको मेरी मनोगत निश्चयात्मकता का पता चलता है। “मैं जानता हूँ” कहने का अभिप्राय यह है कि जानकार मैं और गैरजानकार अन्य व्यक्ति में (संभवत: अनुभव की कोटि में भेद पर आधारित) भिन्नता का कारण जानकारी का भेद है।


गणित में जब मैं कहता हूँ “मैं जानता हूँ” तो उसका औचित्य कोई उपपत्ति होती है।
गणित में जब मैं कहता हूँ “मैं जानता हूँ” तो उसका औचित्य कोई उपपत्ति होती है।
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{{ParUG|566}} न ही मेरा भाषा-खेल (नम्बर 2)<ref>''फ़िलोसॉफ़िकल इन्वेस्टिगेशंस'' §2. सं.</ref> सीखने वाला शिशु यह कहना सीखता है कि “मैं जानता हूँ कि इसे ‘पट्टिका’ कहते हैं।”
{{ParUG|566}} न ही मेरा भाषा-खेल (नम्बर 2)<ref>''फ़िलोसॉफ़िकल इन्वेस्टिगेशंस'' §2. सं.</ref> सीखने वाला शिशु यह कहना सीखता है कि “मैं जानता हूँ कि इसे ‘पट्टिका’ कहते हैं।”


बेशक, ऐसा भाषा-खेल होता है जिसमें शिशु ''उस'' वाक्य का प्रयोग करता है। ऐसे खेल की यह पूर्वापेक्षा है कि शिशु नाम के साथ ही उसके प्रयोग में भी समर्थ हो जाता है। (मानो कोई मुझे कहे “इस रंग को... कहते हैं”।) – अतः, यदि शिशु ने ईंट का भाषा-खेल सीखा है, तो हम कुछ ऐसा कह सकते हैं “और इस ईंट को ‘...’ कहते हैं”, और इस प्रकार मूल भाषा-खेल का ''विस्तार'' होता है।
बेशक, ऐसा भाषा-खेल होता है जिसमें शिशु ''उस'' वाक्य का प्रयोग करता है। ऐसे खेल की यह पूर्वापेक्षा है कि शिशु नाम के साथ ही उसके प्रयोग में भी समर्थ हो जाता है। (मानो कोई मुझे कहे “इस रंग को.... कहते हैं”।) – अतः, यदि शिशु ने ईंट का भाषा-खेल सीखा है, तो हम कुछ ऐसा कह सकते हैं “और इस ईंट को ‘....’ कहते हैं”, और इस प्रकार मूल भाषा-खेल का ''विस्तार'' होता है।


{{ParUG|567}} और अब, क्या मेरा यह ज्ञान कि मुझे लु.वि. कहते हैं, मेरे इस ज्ञान जैसा है कि पानी 100° से. पर उबलता है? बेशक प्रश्न पूछने का यह ढंग ही गलत है।
{{ParUG|567}} और अब, क्या मेरा यह ज्ञान कि मुझे लु.वि. कहते हैं, मेरे इस ज्ञान जैसा है कि पानी 100° से. पर उबलता है? बेशक प्रश्न पूछने का यह ढंग ही गलत है।
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{{ParUG|570}} “मैं जानता हूँ कि यह मेरा नाम है; हम में से प्रत्येक वयस्क अपना नाम जानता है।”
{{ParUG|570}} “मैं जानता हूँ कि यह मेरा नाम है; हम में से प्रत्येक वयस्क अपना नाम जानता है।”


{{ParUG|571}} “मेरा नाम... है – आप इस पर भरोसा कर सकते हैं। यदि यह गलत निकले तो भविष्य में आप कभी भी मुझ पर भरोसा न करें।”
{{ParUG|571}} “मेरा नाम.... है – आप इस पर भरोसा कर सकते हैं। यदि यह गलत निकले तो भविष्य में आप कभी भी मुझ पर भरोसा न करें।”


{{ParUG|572}} क्या मैं नहीं जानता कि मैं अपना नाम जानने जैसी बात के बारे में गलती नहीं कर सकता?
{{ParUG|572}} क्या मैं नहीं जानता कि मैं अपना नाम जानने जैसी बात के बारे में गलती नहीं कर सकता?
Line 1,516: Line 1,516:
{{ParUG|580}} ऐसा तो हो ही सकता है कि जब भी मैं “मैं जानता हूँ” कहूँ, वह गलत निकले। (प्रदर्शन करना)
{{ParUG|580}} ऐसा तो हो ही सकता है कि जब भी मैं “मैं जानता हूँ” कहूँ, वह गलत निकले। (प्रदर्शन करना)


{{ParUG|581}} किन्तु, हो सकता है कि मैं फिर भी अपने आपको रोक न पाऊँ और “मैं जानता हूँ...” कहता रहूँ। किन्तु अपने आप से पूछें: इस अभिव्यक्ति को शिशु ने कैसे सीखा?
{{ParUG|581}} किन्तु, हो सकता है कि मैं फिर भी अपने आपको रोक न पाऊँ और “मैं जानता हूँ....” कहता रहूँ। किन्तु अपने आप से पूछें: इस अभिव्यक्ति को शिशु ने कैसे सीखा?


{{ParUG|582}} “मैं जानता हूँ” का यह अर्थ हो सकता है: मैं इससे पहले से परिचित हूँ – या फिर: ऐसा ही है।
{{ParUG|582}} “मैं जानता हूँ” का यह अर्थ हो सकता है: मैं इससे पहले से परिचित हूँ – या फिर: ऐसा ही है।


{{ParUG|583}} “मैं जानता हूँ कि... में इसका नाम ‘...’ है।” – आप कैसे जानते हैं? – “मैंने... सीखा है”।
{{ParUG|583}} “मैं जानता हूँ कि.... में इसका नाम ‘....’ है।” – आप कैसे जानते हैं? – “मैंने.... सीखा है”।


इस उदाहरण में “... में इसका नाम ‘...’ है” के स्थान पर क्या मैं “जानता हूँ इत्यादि” अभिव्यक्ति का प्रयोग कर सकता हूँ?
इस उदाहरण में “.... में इसका नाम ‘....’ है” के स्थान पर क्या मैं “जानता हूँ इत्यादि” अभिव्यक्ति का प्रयोग कर सकता हूँ?


{{ParUG|584}} क्या किसी साधारण कथन के बाद “जानना” क्रिया को “आप कैसे जानते हैं?” प्रश्न में ही प्रयोग करना संभव होगा? – “मैं पहले से ही उसे जानता हूँ” यह कहने के बजाय हम “मैं उससे परिचित हूँ” कहते हैं; और यह उस तथ्य के बताए जाने पर ही होता है। किन्तु<ref>''यह वाक्य बाद में जोड़ा गया।'' (सं.)</ref> “मैं जानता हूँ कि वह क्या है” के बदले हम क्या कहें?
{{ParUG|584}} क्या किसी साधारण कथन के बाद “जानना” क्रिया को “आप कैसे जानते हैं?” प्रश्न में ही प्रयोग करना संभव होगा? – “मैं पहले से ही उसे जानता हूँ” यह कहने के बजाय हम “मैं उससे परिचित हूँ” कहते हैं; और यह उस तथ्य के बताए जाने पर ही होता है। किन्तु<ref>''यह वाक्य बाद में जोड़ा गया।'' (सं.)</ref> “मैं जानता हूँ कि वह क्या है” के बदले हम क्या कहें?
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{{ParUG|585}} किन्तु क्या “मैं जानता हूँ कि वह एक पेड़ है” यह अभिव्यक्ति “वह एक पेड़ है” इस अभिव्यक्ति से कोई भिन्न बात नहीं कहती?
{{ParUG|585}} किन्तु क्या “मैं जानता हूँ कि वह एक पेड़ है” यह अभिव्यक्ति “वह एक पेड़ है” इस अभिव्यक्ति से कोई भिन्न बात नहीं कहती?


{{ParUG|586}} “मैं जानता हूँ कि वह क्या है” कहने के बजाय हम “मैं बतला सकता हूँ कि वह क्या है” कह सकते हैं। पर इस अभिव्यक्ति के आकार को अपनाने पर “मैं जानता हूँ कि वह एक...” इस अभिव्यक्ति का क्या होगा?
{{ParUG|586}} “मैं जानता हूँ कि वह क्या है” कहने के बजाय हम “मैं बतला सकता हूँ कि वह क्या है” कह सकते हैं। पर इस अभिव्यक्ति के आकार को अपनाने पर “मैं जानता हूँ कि वह एक....” इस अभिव्यक्ति का क्या होगा?


{{ParUG|587}} पुन: इस प्रश्न पर विचार करते हैं कि क्या “मैं जानता हूँ कि वह एक...” अभिव्यक्ति “वह एक...” इस अभिव्यक्ति से कुछ भिन्न बात बताती है। पूर्व वाक्य में एक व्यक्ति का उल्लेख है किन्तु उत्तर वाक्य में किसी व्यक्ति का उल्लेख नहीं है। किन्तु इससे यह पता नहीं चलता कि दोनों के अर्थ भिन्न हैं। सभी प्रयोगों में हम पहले वाक्य को दूसरे वाक्य से प्रतिस्थापित कर देते हैं, और उत्तर वाक्य को एक विशेष अन्दाज में कहते हैं। चूँकि अविरोधी कथन और विरोधी कथन को कहने का अन्दाज ही भिन्न होता है।
{{ParUG|587}} पुन: इस प्रश्न पर विचार करते हैं कि क्या “मैं जानता हूँ कि वह एक....” अभिव्यक्ति “वह एक....” इस अभिव्यक्ति से कुछ भिन्न बात बताती है। पूर्व वाक्य में एक व्यक्ति का उल्लेख है किन्तु उत्तर वाक्य में किसी व्यक्ति का उल्लेख नहीं है। किन्तु इससे यह पता नहीं चलता कि दोनों के अर्थ भिन्न हैं। सभी प्रयोगों में हम पहले वाक्य को दूसरे वाक्य से प्रतिस्थापित कर देते हैं, और उत्तर वाक्य को एक विशेष अन्दाज में कहते हैं। चूँकि अविरोधी कथन और विरोधी कथन को कहने का अन्दाज ही भिन्न होता है।


{{ParUG|588}} किन्तु, क्या मैं “मैं जानता हूँ कि...” शब्दों का प्रयोग किसी मनःस्थिति को अभिव्यक्त करने के लिए नहीं करता, जबकि “वह एक... है” कथन से वह अभिव्यक्ति नहीं होती? पर फिर भी बहुधा इस कथन का उत्तर यह प्रश्न पूछ कर दिया जाता है “आप कैसे जानते हैं?” – “पर इसका कारण यही है कि मेरी जानकारी की स्थिति मेरे कथन से ज्ञात होती है।” – इस बात को निम्नलिखित ढंग से कहा जा सकता है: चिड़ियाघर में ऐसी सूचना लिखी हो सकती है: “यह एक ज़ेबरा है”; किन्तु ऐसी सूचना कभी नहीं हो सकती “मैं जानता हूँ कि यह एक ज़ेबरा है”।
{{ParUG|588}} किन्तु, क्या मैं “मैं जानता हूँ कि....” शब्दों का प्रयोग किसी मनःस्थिति को अभिव्यक्त करने के लिए नहीं करता, जबकि “वह एक.... है” कथन से वह अभिव्यक्ति नहीं होती? पर फिर भी बहुधा इस कथन का उत्तर यह प्रश्न पूछ कर दिया जाता है “आप कैसे जानते हैं?” – “पर इसका कारण यही है कि मेरी जानकारी की स्थिति मेरे कथन से ज्ञात होती है।” – इस बात को निम्नलिखित ढंग से कहा जा सकता है: चिड़ियाघर में ऐसी सूचना लिखी हो सकती है: “यह एक ज़ेबरा है”; किन्तु ऐसी सूचना कभी नहीं हो सकती “मैं जानता हूँ कि यह एक ज़ेबरा है”।


किसी व्यक्ति द्वारा उच्चारित होने पर ही “मैं जानता हूँ” का अर्थ होता है, किन्तु, तभी जब “मैं जानता हूँ...” अथवा “वह एक... है” के उच्चारण के प्रति
किसी व्यक्ति द्वारा उच्चारित होने पर ही “मैं जानता हूँ” का अर्थ होता है, किन्तु, तभी जब “मैं जानता हूँ....” अथवा “वह एक.... है” के उच्चारण के प्रति


समभाव हो।
समभाव हो।
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किन्तु, किसी अन्य स्थिति में हम आरंभ में कह सकते हैं कि “वह एक है”, और इसका विरोध किए जाने पर प्रत्युत्तर यह कह कर दे सकते हैं: “मैं जानता हूँ कि वह कौनसा पेड़ है”, और ऐसा करके हम अपने निश्चित होने को रेखांकित कर सकते हैं।
किन्तु, किसी अन्य स्थिति में हम आरंभ में कह सकते हैं कि “वह एक है”, और इसका विरोध किए जाने पर प्रत्युत्तर यह कह कर दे सकते हैं: “मैं जानता हूँ कि वह कौनसा पेड़ है”, और ऐसा करके हम अपने निश्चित होने को रेखांकित कर सकते हैं।


{{ParUG|592}} “मैं आपको बतला सकता हूँ कि वह कौनसा... यानी, इसके बारे में कोई संदेह नहीं है।”
{{ParUG|592}} “मैं आपको बतला सकता हूँ कि वह कौनसा.... यानी, इसके बारे में कोई संदेह नहीं है।”


{{ParUG|593}} जहाँ हम “मैं जानता हूँ” अभिव्यक्ति को “यह एक है” अभिव्यक्ति से प्रतिस्थापित कर सकते हैं वहाँ भी हम एक के निषेध को दूसरे के निषेध से प्रतिस्थापित नहीं कर सकते।
{{ParUG|593}} जहाँ हम “मैं जानता हूँ” अभिव्यक्ति को “यह एक है” अभिव्यक्ति से प्रतिस्थापित कर सकते हैं वहाँ भी हम एक के निषेध को दूसरे के निषेध से प्रतिस्थापित नहीं कर सकते।


“मैं नहीं जानता कि...” अभिव्यक्ति के आते ही हमारे भाषा-खेल में एक नया घटक प्रवेश कर जाता है।
“मैं नहीं जानता कि....” अभिव्यक्ति के आते ही हमारे भाषा-खेल में एक नया घटक प्रवेश कर जाता है।


{{ParUG|594}} मेरा नाम लु.वि. है। इसके बारे में बखेड़ा खड़ा करने पर मैं इससे संबंधित इतने प्रमाण जुटा दूँगा जिससे इसके बारे में कोई सन्देह नहीं रहेगा।
{{ParUG|594}} मेरा नाम लु.वि. है। इसके बारे में बखेड़ा खड़ा करने पर मैं इससे संबंधित इतने प्रमाण जुटा दूँगा जिससे इसके बारे में कोई सन्देह नहीं रहेगा।
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ऐसे व्यक्ति की कल्पना करने में मैं एक वास्तविकता की, उसके चारों ओर विद्यमान संसार की भी कल्पना करता हूँ; और मैं यह कल्पना भी करता हूँ कि वह इस संसार के विरुद्ध सोच (और बोल) रहा है।
ऐसे व्यक्ति की कल्पना करने में मैं एक वास्तविकता की, उसके चारों ओर विद्यमान संसार की भी कल्पना करता हूँ; और मैं यह कल्पना भी करता हूँ कि वह इस संसार के विरुद्ध सोच (और बोल) रहा है।


{{ParUG|596}} जब कोई मुझे बताता है कि उसका नाम न. न. है तो मेरा उसे “क्या आप गलती कर सकते हैं?” पूछना सार्थक हो सकता है। भाषा-खेल में यह प्रश्न पूछा जा सकता है। और इसका सकारात्मक अथवा नकारात्मक उत्तर सार्थक होता है। – बेशक, यह उत्तर भी अचूक नहीं होता, यानी, किसी समय इसमें चूक हो सकती है, पर फिर भी इससे “क्या आप... हो सकते हैं” प्रश्न और इसका “निषेधात्मक” उत्तर निरर्थक नहीं हो जाता।
{{ParUG|596}} जब कोई मुझे बताता है कि उसका नाम न. न. है तो मेरा उसे “क्या आप गलती कर सकते हैं?” पूछना सार्थक हो सकता है। भाषा-खेल में यह प्रश्न पूछा जा सकता है। और इसका सकारात्मक अथवा नकारात्मक उत्तर सार्थक होता है। – बेशक, यह उत्तर भी अचूक नहीं होता, यानी, किसी समय इसमें चूक हो सकती है, पर फिर भी इससे “क्या आप.... हो सकते हैं” प्रश्न और इसका “निषेधात्मक” उत्तर निरर्थक नहीं हो जाता।


{{ParUG|597}} “क्या आप गलती कर सकते हैं?” प्रश्न का उत्तर इस कथन को वज़नदार बना देता है। यह भी उत्तर हो सकता है: “मेरे ''विचार'' में गलती नहीं कर सकते।”
{{ParUG|597}} “क्या आप गलती कर सकते हैं?” प्रश्न का उत्तर इस कथन को वज़नदार बना देता है। यह भी उत्तर हो सकता है: “मेरे ''विचार'' में गलती नहीं कर सकते।”


{{ParUG|598}} किन्तु “क्या आप...” प्रश्न का उत्तर यह कहकर नहीं दिया जा सकता: “मैं स्थिति का वर्णन कर देता हूँ, फिर आप स्वयं ही इस संबंध में निर्णय कर लें कि मैं गलती कर सकता हूँ या नहीं”?
{{ParUG|598}} किन्तु “क्या आप....” प्रश्न का उत्तर यह कहकर नहीं दिया जा सकता: “मैं स्थिति का वर्णन कर देता हूँ, फिर आप स्वयं ही इस संबंध में निर्णय कर लें कि मैं गलती कर सकता हूँ या नहीं”?


उदाहरणार्थ, जब प्रश्न किसी के अपने नाम के बारे में हो तो यह संभव है कि उसने कभी भी इस नाम का प्रयोग न किया हो, किन्तु किन्हीं दस्तावेजों में उसे इस नाम को पढ़ने की स्मृति हो, – दूसरी ओर यह भी उत्तर हो सकता है: “तमाम उम्र मेरा यही नाम रहा है; सभी लोग मुझे इसी नाम से पुकारते हैं।” यदि ''यह'' उत्तर “मैं गलती नहीं कर सकता” उत्तर के समकक्ष नहीं है, तो बाद का कथन पूरी तरह निरर्थक हो जाएगा। पर फिर भी यह महत्त्वपूर्ण भेद को इंगित करता है।
उदाहरणार्थ, जब प्रश्न किसी के अपने नाम के बारे में हो तो यह संभव है कि उसने कभी भी इस नाम का प्रयोग न किया हो, किन्तु किन्हीं दस्तावेजों में उसे इस नाम को पढ़ने की स्मृति हो, – दूसरी ओर यह भी उत्तर हो सकता है: “तमाम उम्र मेरा यही नाम रहा है; सभी लोग मुझे इसी नाम से पुकारते हैं।” यदि ''यह'' उत्तर “मैं गलती नहीं कर सकता” उत्तर के समकक्ष नहीं है, तो बाद का कथन पूरी तरह निरर्थक हो जाएगा। पर फिर भी यह महत्त्वपूर्ण भेद को इंगित करता है।


{{ParUG|599}} उदाहरणार्थ, लगभग 100° से. पर पानी खौलता है इस प्रतिज्ञप्ति की निश्चितता का वर्णन किया जा सकता है। यह कोई ऐसी प्रतिज्ञप्ति नहीं है जिसे मैंने सुना हो (कई अन्य प्रतिज्ञप्तियों की तरह जिनका मैं उल्लेख कर सकता हूँ)। पाठशाला में मैंने स्वयं यह प्रयोग किया है। हमारी पाठ्य पुस्तकों की यह एक अत्यधिक प्रारंभिक प्रतिज्ञप्ति है, और ऐसे मामलों में हमें अपनी पाठ्य-पुस्तकों पर विश्वास करना पड़ता है क्योंकि...। – अब हम इससे उलट ऐसे उदाहरण दे सकते हैं जिनसे यह पता चलता है कि मनुष्यों ने कई बातों को सुनिश्चित माना जो बाद में, हमारे अनुसार, गलत सिद्ध हुईं। किन्तु यह युक्ति बेकार<ref>''हाशिये में टिप्पणी।'' क्या यह भी संभव नहीं है कि हम ऐसा मानते हों कि हम अपनी पूर्व त्रुटियों को पहचानकर बाद में यह निष्कर्ष निकालते हों कि हमारी पहली सोच ही उचित थी? इत्यादि।</ref> है। यह कहना तो कुछ भी कहना नहीं है कि: अन्ततोगत्वा ''हम'' उन्हीं आधारों का उल्लेख करते हैं जिन्हें हम आधार मानते हैं।
{{ParUG|599}} उदाहरणार्थ, लगभग 100° से. पर पानी खौलता है इस प्रतिज्ञप्ति की निश्चितता का वर्णन किया जा सकता है। यह कोई ऐसी प्रतिज्ञप्ति नहीं है जिसे मैंने सुना हो (कई अन्य प्रतिज्ञप्तियों की तरह जिनका मैं उल्लेख कर सकता हूँ)। पाठशाला में मैंने स्वयं यह प्रयोग किया है। हमारी पाठ्य पुस्तकों की यह एक अत्यधिक प्रारंभिक प्रतिज्ञप्ति है, और ऐसे मामलों में हमें अपनी पाठ्य-पुस्तकों पर विश्वास करना पड़ता है क्योंकि....। – अब हम इससे उलट ऐसे उदाहरण दे सकते हैं जिनसे यह पता चलता है कि मनुष्यों ने कई बातों को सुनिश्चित माना जो बाद में, हमारे अनुसार, गलत सिद्ध हुईं। किन्तु यह युक्ति बेकार<ref>''हाशिये में टिप्पणी।'' क्या यह भी संभव नहीं है कि हम ऐसा मानते हों कि हम अपनी पूर्व त्रुटियों को पहचानकर बाद में यह निष्कर्ष निकालते हों कि हमारी पहली सोच ही उचित थी? इत्यादि।</ref> है। यह कहना तो कुछ भी कहना नहीं है कि: अन्ततोगत्वा ''हम'' उन्हीं आधारों का उल्लेख करते हैं जिन्हें हम आधार मानते हैं।


मेरा मानना है कि हमारे भाषा-खेलों की प्रकृति के बारे में गलतफहमी ही इसका आधार है।
मेरा मानना है कि हमारे भाषा-खेलों की प्रकृति के बारे में गलतफहमी ही इसका आधार है।
Line 1,664: Line 1,664:
{{ParUG|632}} सुनिश्चित एवं अनिश्चित स्मृति। यदि साधारणत: सुनिश्चित स्मृति अनिश्चित स्मृति से अधिक विश्वसनीय न होती, यानी, यदि उसकी अनिश्चित स्मृति की तरह ही जाँच द्वारा बहुधा पुष्टि न होती, तो भाषाभिव्यक्ति में निश्चितता और अनिश्चितता की वर्तमान भूमिका नहीं रहती।
{{ParUG|632}} सुनिश्चित एवं अनिश्चित स्मृति। यदि साधारणत: सुनिश्चित स्मृति अनिश्चित स्मृति से अधिक विश्वसनीय न होती, यानी, यदि उसकी अनिश्चित स्मृति की तरह ही जाँच द्वारा बहुधा पुष्टि न होती, तो भाषाभिव्यक्ति में निश्चितता और अनिश्चितता की वर्तमान भूमिका नहीं रहती।


{{ParUG|633}} “मैं भूल कर ही नहीं सकता” – किन्तु ऐसा कहने पर भी जब मैं भूल करता हूँ तो क्या होता है? क्या ऐसा संभव नहीं है? किन्तु क्या इससे “मैं... कर ही नहीं सकता”, अभिव्यक्ति निरर्थक हो जाती है? अथवा क्या इसके बजाए यह कहना उचित होगा कि “मेरे द्वारा भूल करने की संभावना बहुत कम है”? नहीं; क्योंकि उसका कोई और ही अभिप्राय है?
{{ParUG|633}} “मैं भूल कर ही नहीं सकता” – किन्तु ऐसा कहने पर भी जब मैं भूल करता हूँ तो क्या होता है? क्या ऐसा संभव नहीं है? किन्तु क्या इससे “मैं.... कर ही नहीं सकता”, अभिव्यक्ति निरर्थक हो जाती है? अथवा क्या इसके बजाए यह कहना उचित होगा कि “मेरे द्वारा भूल करने की संभावना बहुत कम है”? नहीं; क्योंकि उसका कोई और ही अभिप्राय है?


{{ParUG|634}} “मैं भूल कर भूल कर ही नहीं सकता; और अधिक से अधिक बुरा यही होगा कि मैं अपनी प्रतिज्ञप्ति को प्रतिमान में बदल दूँगा।”
{{ParUG|634}} “मैं भूल कर भूल कर ही नहीं सकता; और अधिक से अधिक बुरा यही होगा कि मैं अपनी प्रतिज्ञप्ति को प्रतिमान में बदल दूँगा।”
Line 1,720: Line 1,720:
{{ParUG|656}} पर मैं लु. वि. कहलाता हूँ, इस प्रतिज्ञप्ति के बारे में ऐसा ''नहीं'' कहा जा सकता। न ही यह बात इस प्रतिज्ञप्ति के बारे में कही जा सकती है कि अमुक लोगों ने अमुक समस्या का ठीक-ठीक समाधान कर लिया है।
{{ParUG|656}} पर मैं लु. वि. कहलाता हूँ, इस प्रतिज्ञप्ति के बारे में ऐसा ''नहीं'' कहा जा सकता। न ही यह बात इस प्रतिज्ञप्ति के बारे में कही जा सकती है कि अमुक लोगों ने अमुक समस्या का ठीक-ठीक समाधान कर लिया है।


{{ParUG|657}} गणित की प्रतिज्ञप्तियों के बारे में कहा जा सकता है कि वे जड़ हो चुकी हैं। – “मैं... कहलाता हूँ”, के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता। किन्तु मेरे जैसे
{{ParUG|657}} गणित की प्रतिज्ञप्तियों के बारे में कहा जा सकता है कि वे जड़ हो चुकी हैं। – “मैं.... कहलाता हूँ”, के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता। किन्तु मेरे जैसे


कई अन्य लोग भी अनेकानेक प्रमाणों के आधार पर इसे ''अकाट्य'' मानते हैं। और वे विचारहीनता के कारण ऐसा नहीं मानते, क्योंकि, किसी प्रमाण का अत्यन्त प्रभावी बल इस तथ्य में निहित है कि उससे प्रतिकूल प्रमाण की स्थिति में भी हमें उसे छोड़ने की ''आवश्यकता'' नहीं पड़ती। अतः, अब हमें गणितीय प्रतिज्ञप्तियों को अकाट्य बनाने वाले आधार जैसा आधार मिल गया है।
कई अन्य लोग भी अनेकानेक प्रमाणों के आधार पर इसे ''अकाट्य'' मानते हैं। और वे विचारहीनता के कारण ऐसा नहीं मानते, क्योंकि, किसी प्रमाण का अत्यन्त प्रभावी बल इस तथ्य में निहित है कि उससे प्रतिकूल प्रमाण की स्थिति में भी हमें उसे छोड़ने की ''आवश्यकता'' नहीं पड़ती। अतः, अब हमें गणितीय प्रतिज्ञप्तियों को अकाट्य बनाने वाले आधार जैसा आधार मिल गया है।
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{{ParUG|670}} हम मानवीय अन्वेषण के मूल सिद्धान्तों का उल्लेख कर सकते हैं।
{{ParUG|670}} हम मानवीय अन्वेषण के मूल सिद्धान्तों का उल्लेख कर सकते हैं।


{{ParUG|671}} मैं यहाँ से संसार के उस भाग में उड़ कर जाता हूँ जहाँ के लोगों ने उड़ने की संभावना के बारे में या तो बहुत कम या फिर कुछ भी न सुना हो। मैं उन्हें बताता हूँ कि मैं अभी-अभी... से उड़ कर आया हूँ। वे मुझसे पूछते हैं कि कहीं मैं भूल तो नहीं कर रहा। – स्पष्टतः उड़ने के बारे में उनके दोषपूर्ण विचार हैं। (संदूक में बन्द होकर यात्रा करने पर अपनी यात्रा के साधन के बारे में मुझसे भूल होने की संभावना है।) मेरे मात्र यह कहने से कि मैं गलती नहीं कर सकता संभवत: वे सन्तुष्ट नहीं होंगे; किन्तु वास्तविक विधि के विवरण से वे सन्तुष्ट हो जाएंगे। फिर वे ''भूल'' करने की संभावना की बात ही नहीं करेंगे। किन्तु इतना होने पर – मुझ पर भरोसा करने पर भी – वे सोच सकते हैं कि मैं स्वप्नावस्था में था, या जादू के वशीभूत मैं इसकी कल्पना कर रहा हूँ।
{{ParUG|671}} मैं यहाँ से संसार के उस भाग में उड़ कर जाता हूँ जहाँ के लोगों ने उड़ने की संभावना के बारे में या तो बहुत कम या फिर कुछ भी न सुना हो। मैं उन्हें बताता हूँ कि मैं अभी-अभी.... से उड़ कर आया हूँ। वे मुझसे पूछते हैं कि कहीं मैं भूल तो नहीं कर रहा। – स्पष्टतः उड़ने के बारे में उनके दोषपूर्ण विचार हैं। (संदूक में बन्द होकर यात्रा करने पर अपनी यात्रा के साधन के बारे में मुझसे भूल होने की संभावना है।) मेरे मात्र यह कहने से कि मैं गलती नहीं कर सकता संभवत: वे सन्तुष्ट नहीं होंगे; किन्तु वास्तविक विधि के विवरण से वे सन्तुष्ट हो जाएंगे। फिर वे ''भूल'' करने की संभावना की बात ही नहीं करेंगे। किन्तु इतना होने पर – मुझ पर भरोसा करने पर भी – वे सोच सकते हैं कि मैं स्वप्नावस्था में था, या जादू के वशीभूत मैं इसकी कल्पना कर रहा हूँ।


{{ParUG|672}} ‘जब मैं ''इस'' साक्ष्य पर भरोसा नहीं करता तो मैं किसी अन्य साक्ष्य पर भरोसा क्यों करूँ?’
{{ParUG|672}} ‘जब मैं ''इस'' साक्ष्य पर भरोसा नहीं करता तो मैं किसी अन्य साक्ष्य पर भरोसा क्यों करूँ?’