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नहीं किया है। पूछा जा सकता है: वह करेगा क्या? संभवत: वह किंकर्त्तव्यविमूढ़ खड़ा रहेगा, अथवा '''क''' को उसके खंड दिखाएगा। यहाँ कहा जा ''सकता'' है: "'''न'''" अर्थहीन हो गया है; और इस अभिव्यक्ति का अर्थ होगा कि "'''न'''" संकेत का हमारे भाषा-खेल अब कोई प्रयोग नहीं रहा (यदि हम उसे कोई नया प्रयोग न दें तो)। "'''न'''" इसलिए भी अर्थहीन हो सकता है कि किसी भी कारणवश उपकरण को कोई अन्य नाम दे दिया गया हो और "'''न'''" संकेत को अब भाषा-खेल में प्रयोग नहीं किया जाता हो — किन्तु हम ऐसी परिपाटी की कल्पना भी कर सकते हैं जिसमें जब '''ख''' को '''क''' ऐसे उपकरण का संकेत दे जो खंडित हो चुका हो तो '''ख''' को उत्तर में सिर हिलाना होता है। — कहा जा सकता है कि इस प्रकार उपकरण के न रहने पर भी "'''न'''" आदेश को भाषा-खेल में स्थान दिया गया है, और "'''न'''" संकेत का अर्थ उसके वाहक के न रहने पर भी है। | नहीं किया है। पूछा जा सकता है: वह करेगा क्या? संभवत: वह किंकर्त्तव्यविमूढ़ खड़ा रहेगा, अथवा '''क''' को उसके खंड दिखाएगा। यहाँ कहा जा ''सकता'' है: "'''न'''" अर्थहीन हो गया है; और इस अभिव्यक्ति का अर्थ होगा कि "'''न'''" संकेत का हमारे भाषा-खेल अब कोई प्रयोग नहीं रहा (यदि हम उसे कोई नया प्रयोग न दें तो)। "'''न'''" इसलिए भी अर्थहीन हो सकता है कि किसी भी कारणवश उपकरण को कोई अन्य नाम दे दिया गया हो और "'''न'''" संकेत को अब भाषा-खेल में प्रयोग नहीं किया जाता हो — किन्तु हम ऐसी परिपाटी की कल्पना भी कर सकते हैं जिसमें जब '''ख''' को '''क''' ऐसे उपकरण का संकेत दे जो खंडित हो चुका हो तो '''ख''' को उत्तर में सिर हिलाना होता है। — कहा जा सकता है कि इस प्रकार उपकरण के न रहने पर भी "'''न'''" आदेश को भाषा-खेल में स्थान दिया गया है, और "'''न'''" संकेत का अर्थ उसके वाहक के न रहने पर भी है। | ||
'''42.''' किन्तु, क्या उस खेल में, उदाहरणार्थ, ऐसे नाम का भी कोई अर्थ होता है जिसे ''कभी भी'' किसी भी उपकरण के लिए प्रयोग न किया गया हो? — आइए हम मान लें कि "X" इस प्रकार का संकेत है, और '''क''' यह संकेत '''ख''' को देता है — हाँ इस प्रकार के संकेतों को भी भाषा-खेल में स्थान दिया जा सकता है, और '''ख''' को उनका उत्तर भी, मानो सिर हिलाकर देना हो सकता है (इसकी कल्पना उनके बीच एक प्रकार के परिहास के रूप में की जा सकती है।) | '''42.''' किन्तु, क्या उस खेल में, उदाहरणार्थ, ऐसे नाम का भी कोई अर्थ होता है जिसे ''कभी भी'' किसी भी उपकरण के लिए प्रयोग न किया गया हो? — आइए हम मान लें कि "'''X'''" इस प्रकार का संकेत है, और '''क''' यह संकेत '''ख''' को देता है — हाँ इस प्रकार के संकेतों को भी भाषा-खेल में स्थान दिया जा सकता है, और '''ख''' को उनका उत्तर भी, मानो सिर हिलाकर देना हो सकता है (इसकी कल्पना उनके बीच एक प्रकार के परिहास के रूप में की जा सकती है।) | ||
'''43.''' ''अधिकांश'' स्थितियों में — यद्यपि सभी में तो नहीं — जिनमें हम 'अर्थ' शब्द का प्रयोग करते हैं, इसकी परिभाषा यूँ की जा सकती है: किसी भी शब्द का अर्थ तो भाषा में उसका प्रयोग है। | '''43.''' ''अधिकांश'' स्थितियों में — यद्यपि सभी में तो नहीं — जिनमें हम 'अर्थ' शब्द का प्रयोग करते हैं, इसकी परिभाषा यूँ की जा सकती है: किसी भी शब्द का अर्थ तो भाषा में उसका प्रयोग है। | ||
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'''45.''' प्रदर्शनात्मक "यह" कभी भी वाहक विहीन नहीं हो सकता। कहा जा सकता है: "जब तक कोई ''यह'' है तब तक 'यह' शब्द अर्थपूर्ण भी है, चाहे ''यह'' असंयुक्त हो अथवा संयुक्त" — किन्तु उससे यह शब्द नाम तो नहीं बन जाता। इसके विपरीत: नाम का प्रयोग इंगित करने की भंगिमा के साथ नहीं किया जाता अपितु उस भंगिमा द्वारा उसकी तो केवल व्याख्या ही की जाती है। | '''45.''' प्रदर्शनात्मक "यह" कभी भी वाहक विहीन नहीं हो सकता। कहा जा सकता है: "जब तक कोई ''यह'' है तब तक 'यह' शब्द अर्थपूर्ण भी है, चाहे ''यह'' असंयुक्त हो अथवा संयुक्त" — किन्तु उससे यह शब्द नाम तो नहीं बन जाता। इसके विपरीत: नाम का प्रयोग इंगित करने की भंगिमा के साथ नहीं किया जाता अपितु उस भंगिमा द्वारा उसकी तो केवल व्याख्या ही की जाती है। | ||
'''46.''' नाम वस्तुत: असंयुक्तों को इंगित करते हैं, इस विचार की पृष्ठभूमि क्या है? — | '''46.''' नाम वस्तुत: असंयुक्तों को इंगित करते हैं, इस विचार की पृष्ठभूमि क्या है? — | ||
''थिएटेटस'' में सुकरात कहते हैं: "यदि मैं कोई भूल नहीं कर रहा तो मैंने कुछ लोगों को यह कहते हुए सुना है: मूल तत्त्वों की, यानि उन तत्त्वों की जिनसे हमारी और अन्य सभी विषयों की संरचना हुई है, कोई परिभाषा नहीं होती; क्योंकि प्रत्येक स्वयंभू विषय का तो ''नामकरण'' ही किया जा सकता है, अन्य निर्धारण संभव ही नहीं, न तो यूँ ही कि वह है, न ही यूँ कि यह नहीं है....। किन्तु जो स्वयंभू है उस का.... नामकरण तो किसी अन्य निर्धारण के बिना ही करना है। परिणामस्वरूप किसी भी मूल तत्त्व का विवरण देना असंभव है; उसके लिए मात्र नाम के अतिरिक्त कुछ भी संभव नहीं, अपना नाम ही उसका सर्वस्व है। किन्तु जिस प्रकार जो भी इन मूल तत्त्वों से संरचित है वह स्वयं संयुक्त होता है, उसी प्रकार संरचना द्वारा तत्त्वों के नाम वर्णनात्मक भाषा बन जाते हैं। क्योंकि वाक् का सार तो नामों का संकलन है।" | ''थिएटेटस'' में सुकरात कहते हैं: "यदि मैं कोई भूल नहीं कर रहा तो मैंने कुछ लोगों को यह कहते हुए सुना है: मूल तत्त्वों की, यानि उन तत्त्वों की जिनसे हमारी और अन्य सभी विषयों की संरचना हुई है, कोई परिभाषा नहीं होती; क्योंकि प्रत्येक स्वयंभू विषय का तो ''नामकरण'' ही किया जा सकता है, अन्य निर्धारण संभव ही नहीं, न तो यूँ ही कि वह है, न ही यूँ कि यह नहीं है....। किन्तु जो स्वयंभू है उस का.... नामकरण तो किसी अन्य निर्धारण के बिना ही करना है। परिणामस्वरूप किसी भी मूल तत्त्व का विवरण देना असंभव है; उसके लिए मात्र नाम के अतिरिक्त कुछ भी संभव नहीं, अपना नाम ही उसका सर्वस्व है। किन्तु जिस प्रकार जो भी इन मूल तत्त्वों से संरचित है वह स्वयं संयुक्त होता है, उसी प्रकार संरचना द्वारा तत्त्वों के नाम वर्णनात्मक भाषा बन जाते हैं। क्योंकि वाक् का सार तो नामों का संकलन है।" | ||
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"क्या इस वृक्ष का चाक्षुष प्रत्यक्ष संयुक्त है, और उसके घटक कौन से हैं?" ऐसे ''दार्शनिक'' प्रश्न का उचित उत्तर है: "वह इस पर निर्भर है कि आप 'असंयुक्त' से क्या समझते हैं।" (और निस्संदेह वह उत्तर नहीं अपितु प्रश्न को ही खारिज करना है।) | "क्या इस वृक्ष का चाक्षुष प्रत्यक्ष संयुक्त है, और उसके घटक कौन से हैं?" ऐसे ''दार्शनिक'' प्रश्न का उचित उत्तर है: "वह इस पर निर्भर है कि आप 'असंयुक्त' से क्या समझते हैं।" (और निस्संदेह वह उत्तर नहीं अपितु प्रश्न को ही खारिज करना है।) | ||
48. आइए हम §2 की पद्धति से ''थिएटेटस'' के विवरण पर विचार करें। ऐसे भाषा-खेल का विचार करें जिसके लिए यह विवरण वास्तव में वैध हो । यह भाषा है किसी सतह पर रंगीन वर्गों के संयोजनों का विवरण देने की। ये वर्ग शतरंज की बिसात के सदृश एक संकुल बनाते हैं। लाल, हरे, श्वेत और श्याम वर्ग हैं। भाषा के शब्द (तदनुसार) हैं: "'''ला'''", "'''ह'''", "'''श्वे'''", "'''श्या'''", और वाक्य हैं इन शब्दों की कोई श्रृंखला। वे वर्गों के विन्यास का विवरण इस क्रम में देते हैं: | |||
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और यूँ उदाहरणार्थ, “'''ला ला श्या ह ह ह ला श्वे श्वे'''" वाक्य इस प्रकार के विन्यास का विवरण देता है: | |||
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यहाँ वाक्य नामों का एक ऐसा संकुल है जिसके अनुरूप तत्त्वों का संकुल है। मूल तत्त्व हैं रंगीन वर्ग। “किन्तु क्या वे असंयुक्त विषय हैं?" — मुझे नहीं पता कि आप मुझसे और किसे "असंयुक्त" कहलवाएंगे, इस भाषा-खेल में इससे अधिक स्वाभाविक क्या होगा? किन्तु अन्य परिस्थितियों में मुझे इकरंगे वर्ग को "संयुक्त" कहना चाहिए क्योंकि वह संभवतः दो आयतों को, अथवा रंग एवं आकृति के तत्त्वों को मिलाकर बना है। किन्तु संयुक्तता के प्रत्यय का विस्तार इस प्रकार भी किया जा सकता है कि लघु क्षेत्र को बृहत् क्षेत्र से किसी अन्य क्षेत्र को घटाने से 'बना हुआ' कहा जा सके। 'बलों की संहति' की बाह्य बिन्दु द्वारा रेखा के 'विभाजन' से तुलना कीजिए: ये अभिव्यक्तियां दर्शाती हैं कि कभी-कभी हम लघु को बृहत् भागों की संरचना के परिणाम और बृहत् को लघु भागों के विभाजन के परिणाम की धारणा बनाने को प्रवृत्त होते हैं। | |||
किन्तु मैं नहीं जानता कि हमारे वाक्य द्वारा वर्णित आकृति को चार तत्त्वों से बना हुआ कहा जाए अथवा नौ तत्त्वों से ! अच्छा, क्या यह वाक्य चार अक्षर का है अथवा नौ का? — और ''इसके'' तत्त्व कौन से हैं, अक्षर-प्रारूप, अथवा अक्षर? हम उत्तर में क्या कहते हैं इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता यदि हम परिस्थिति विशेष में भ्रान्तियों से बचे रहें। | |||
'''49.''' किन्तु यह कहने का क्या अर्थ है कि इन तत्त्वों को हम परिभाषित (अर्थात् वर्णित) नहीं कर सकते, अपितु उनका तो हम नामकरण ही कर सकते हैं? उदाहरणार्थ, इसका अर्थ हो सकता है कि जब किसी चरम स्थिति में कोई संकुल केवल ''एक ही'' वर्ग से बना हो तो उसका विवरण उस रंगीन वर्ग का नाम ही होता है। | |||
यहाँ हम कह सकते हैं — यद्यपि इससे सभी प्रकार के दार्शनिक अन्धविश्वासों का रास्ता खुल जाता है — कि "'''ला'''" अथवा "'''श्या'''" इत्यादि संकेत कभी तो शब्द और कभी प्रतिज्ञप्ति हो सकते हैं। किन्तु यह 'शब्द है अथवा प्रतिज्ञप्ति' तो उस परिस्थिति पर निर्भर है जिसमें उसे कहा अथवा लिखा गया है। उदाहरणार्थ, यदि '''क''' को '''ख''' के लिए रंगीन वर्गों के संकुल का विवरण देना है और वह केवल '''ला''' शब्द को ''ही'' प्रयोग करता है तो हम कह सकते हैं कि यह शब्द विवरण है — प्रतिज्ञप्ति है । किन्तु यदि वह शब्दों को और उनके अर्थों को कंठस्थ कर रहा है, अथवा यदि वह किसी और को शब्दों का प्रयोग सिखा रहा है और निदर्शनात्मक शिक्षण की प्रक्रिया में उन शब्दों का उच्चारण कर रहा है तो हम यह नहीं कहेंगे कि वे प्रतिज्ञप्तियां हैं। उदाहरणार्थ, इस परिस्थिति में, "'''ला'''" शब्द विवरण नहीं है; वह किसी तत्त्व का ''नाम'' है — किन्तु इस तत्त्व का तो ''केवल'' नामकरण ही किया जा सकता है यह कहने का आधार बनाना तो विचित्र ही होगा। क्योंकि नामकरण और विवरण देना एक जैसा नहीं है: नामकरण तो विवरण की तैयारी है। नामकरण अभी तक भाषा-खेल में कोई चाल नहीं है — उसी प्रकार जैसे कि बिसात पर मोहरे को उसके स्थान पर रखना शतरंज की कोई चाल नहीं होती। हम कह सकते हैं: जब किसी वस्तु का नामकरण भर किया गया है तब |